प्रभाकर सिंह, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
सुशान्त सिंह राजपूत की आत्महत्या से एक बहस चल पड़ी है कि क्या बॉलीवुड की आंतरिक राजनीति और गुटबाज़ी ने उनकी जान ले ली ? कुछ लोगों के ख़िलाफ़ उनके गृह प्रदेश बिहार में मुक़दमा भी दायर कर दिया गया है। जो भी हो लेकिन एक बात तो पक्की है कि सुशान्त को उस तरह का सपोर्ट सिस्टम नहीं मिला, जो इस तरह के त्याज्य कर्म को अपनाने से रोकता हो । यह सपोर्ट सिस्टम न उनकी फैमिली से मिला और न जहाँ वे काम करते थे। यह कहना आसान है कि सुशांत की अपनी कोई आंतरिक कमज़ोरी रही होगी और वे अपने दुःख और विषाद से नहीं लड़ पाए होंगे। दूर से लगने वाली ग्लैमरस ज़िन्दगी कितनी स्याह हो सकती है? इसका अंदाज़ा वही लगा सकता है, जो उससे गुज़र रहा हो।
आज की न्यूक्लियर ज़िन्दगी में तो यह और ज़रूरी हो जाता है कि कोई आपका हो, जिसे आप दिल की हर बात बता सकें। ग़म और ख़ुशी शेयर कर सकें, क्योंकि गुटबाज़ियां कहाँ नहीं होती। परिवार से लेकर समाज, ऑफिस, खेल, साहित्य हर जगह लोग गुटबाज़ियों के शिकार हैं। जिस ऑफिस में आप काम करते होंगे, वहाँ आपने भी कुछ गुट बनाए होंगे या आपके ख़िलाफ़ कोई गुटबाज़ी हो रही होगी। कुछ जातीय गुट होंगे, उन जातीय गुटों में भी कुछ ऐसे होंगे, जो अपनी जाति वालों की बैंड बजा रहे होंगे। जिस कॉलोनी में आप रहते होंगे, वहाँ भी अलग अलग गुट मिल जाएंगे। बिहारी गुट, यूपी गुट, साउथ गुट, नार्थ गुट, यह गुट, वह गुट। गुट ही गुट, जिसमें इंसान की सांसें जाती हैं घुट। अब व्हाट्सएप ग्रुप भी गुट में बंट गए हैं। मेरे गुट में वे मेंबर नहीं हो सकते और उनके में मैं। कई बार आपको जानबूझकर इग्नोर किया जाएगा। साहित्य में भी इसी प्रकार बहुत सारे गुट और गुटबाज़ियां मिलेंगी। हमारे गुट का लेखक श्रेष्ठ और है सबका ज्येष्ठ ।
लब्बोलुआब यह है कि जीना है तो गुटबाज़ियों के साथ जीना सीखना होगा। ज़रूरी नहीं है कि हमें उसमें शामिल होना है, लेकिन आपको उसका शिकार होना पड़ेगा और ज़ाहिर है, तब दर्द होगा और उस दर्द की दवा खोजनी होगी। दवा निकालने का सबसे अच्छा तरीक़ा है, वर्जिश, रचनात्मकता और सृजनात्मकता, क्यों कि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना और सिर्फ़ कहेंगे ही नहीं, करेंगे भी। आपकी छवि बिगाड़ने का प्रयास केरेंगे, अफ़वाह फैलाएंगे, आपको छोटा दिखाने का प्रयास करेंगे। लेकिन डरना नहीं है, आत्म अवलोकन के बैट से इन सारी नकारात्मकता और गुटबाज़ी की गेंदों को बाउंड्री के पार मार देना है कि कोई फील्डर न इन्हें कैच कर सके, न ही खोज सके।
आप के सबसे क़रीबी आप ही होते हैं तो ख़ुद से अपनी बात ज़रूर कहें और निर्णय लें कि हथियार डाल देना है या आगे बढ़ जाना है लक्ष्य तक, लेकिन अति किसी भी चीज़ की सही नहीं होती है। अपनी इच्छाओं को लगाम देना सीखें। महत्वाकांक्षी होना बुरी बात नहीं है, लेकिन महत्व के हम इतने आकांक्षी भी न हो जाएं कि सारा महत्व ख़ुद ही ले लें। थोड़ा महत्व औरों को भी मिलने दें ,सबके गुलशन में गुल खिलने दें।
रिसर्च स्कॉलर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
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