प्रभाकर सिंह, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
जिंदगी के मांझे में उलझा हुआ मेरा मन।
मांझे सा उलझा है कुछ मेरे भीतर...
सिरा ढूंढने की जितनी भी कोशिश करता हूँ
उतना ही ज्यादा उलझता जाता और
मांझा भी कई अलग अलग रंगों का
जिसको जोड़ जोड़ कर
ज़िंदगी बनाने की कोशिश कर रहा हूँ मैं।
पर हर बार मन के मांझे की खींचतान में
बस उंगलिया कटती चली जाती हैं
और ज़ख्म हरे के हरे ही रहते हैं...
मेरी पतंग हर बार बहुत ऊंचे जाकर कटी।
कभी मेरी उलझन के कारण
तो कभी पतंग पर मेरे अटूट भरोसे के कारण
और हर बार कोई ना कोई मेरी आँखों के सामने ही
मेरी टूटी पतंग लूट कर ले गया।
मैं देखता रहा और हर बार
मांझा सुलझाने में ही खोया रहा...
सब सुलझाते सुलझाते
मेरी दोनों हथेलियाँ घाव से भर चुकी हैं।
मांझे की पतली सी डोर थामने की भी
जगह नहीं बची है।
और मांझा जस का तस है...
उलझा हुआ है मेरे मन के अंदर।
रिसर्च स्कॉलर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
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