शि.वा.ब्यूरो, रांची। सड़क किनारे हजामत कर परिवार चलाने वाले अशरफ हुसैन उर्दू में पीएचडी कर चुके हैं। इत्तेफाक यह है कि उर्दू में काबिल अशरफ अपनी नाई की दुकान भी उर्दू लाइब्रेरी के बाहर फुटपाथ पर ही लगाते हैं।
अशरफ हुसैन 1987 में मैट्रिक करने के बाद इसी जगह पर नाई की दुकान लगा रहे हैं। निगम वाले कई बार इनकी दुकान को उखाड़ चुके हैं, लेकिन उनका हौंसला नहीं टूटा। वे कहते हैं-गरीबी और परिवार चलाने का बोझ इतना भारी होता है कि उसके नीचे सारी बेइज्जती और गुस्सा दब जाता है।
उन्होंने बताया कि उन्हें बचपन से ही पढ़ाई का शौक था. घर के आर्थिक हालात खराब होने के चलते कम उम्र में ही हजामती का काम शुरू करना पड़ा। बड़े भाई ने भरी जवानी में साथ छोड़ दिया, जिससे उनके परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी भी मेरे कंधे पर आ गई। इन मुश्किल घड़ी में भी अशरफ हुसैन का पढ़ाई से मन नही डोला।
नाईगीरी करते हुए उन्होंने चार साल पहले रांची यूनिर्वसिटी से उर्दू साहित्य में पीएचडी कर ली। इन दिनों वे डी. लिट की तैयारी में लगे हुए हैं। यहां आने वाले ग्राहक बताते हैं कि अशरफ बाल-दाढ़ी बनाते समय गालिब के शेर भी सुनाते हैं।
अशरफ लेखक और आलोचक बनना चाहते हैं। पीएचडी करते हुए उन्होंने झारखंड की उर्दू कथाकारों पर पुस्तक लिखने का विचार किया। इसका डा.गुलाम रब्बानी और सरवर साजिद ने समर्थन किया। उनकी हौसला अफजाई पर अशरफ की। इसके बाद झारखंड की नुमाइंदा ख्वातीन अफसाना निगार शीर्षक किताब प्रकाशित हुई। यह सूबे की चार अहम महिला अफसाना निगारों पर केंद्रित है, इसमें सबूही तारीक, शीरीं नियाजी, कहकशां परवीन और अनवरी बेगम की चुनिंदा कहानियां और उनपर अशरफ की आलोचनात्मक टिप्पणी संगृहित हैं।
शेम! उर्दू में पीएचडी अशरफ चला रहे नाई की दुकान (शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र के वर्ष 12, अंक संख्या-30, 21 फरवरी 2016 में प्रकाशित लेख का पुनः प्रकाशन)