विश्व मानवता को शिक्षा देने वाले आर्यावर्त को क्या हो गया है

अखिलेश आर्येन्दु, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

 

आचरण की उच्चता, उत्तमता और श्रेष्ठता मनुष्य को उसकी पहचान दिलाती है। किस कोटि का मनुष्य है, यह उसके आचरण से पता चलता है। एक समय था। आर्यावर्त भारत के प्रत्येक व्यक्ति का आचरण उच्च कोटि का हुआ करता था। तभी कहा गया-

स्वं स्वं आचरेण शिक्षेरन्  पृथिव्यां  सर्वमानवाः

विचारणीय प्रश्न है जिस आर्यावर्त या भारतवासी विश्व मानवता को शिक्षा दिया करते थे, विज्ञान बताया करते थे, साहित्य समझाया करते थे, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को बताकर लोगों को सभ्य होने का संदेश देते थे, उस भारतवर्ष में रहने वाले लोगों को क्या हो गया है ?

भारतीय समाज पिछले 2000 वर्षों में भिन्न-भिन्न पाखंड और आडंबरों में फँसकर अपने गौरव ज्ञान परम्परा को निरंतर खोता जा रहा है। मुसलमानों, तुर्कों, मंगोलों, डचों और अंग्रेजों के भारतवर्ष पर आधिपत्य जमाने के दौरान भारतवर्ष के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान, धर्म, अध्यात्म, साहित्य, शिक्षा आदि की शिक्षाएं निरंतर लुप्त होती गई। जन्मगत जाति व्यवस्था के कारण सम्पूर्ण भारतीय समाज में तथाकथित ब्राह्मण समाज के लोग हैं, देशी-विदेशी शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारी हो गए थे। अन्य वर्गों में छिटपुट कुछ लोग ही शिक्षित हुआ करते थे। लेकिन दलित पिछड़े समाज में शत-प्रतिशत लोग शिक्षा से वंचित थे या वंचित किया गया था। यहां जानने की जरूरत है कि विदेशी आक्रांताओं ने पिछले 1000 वर्षों में भारतीय हिंदू समाज में व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच, छुआछूत गैर बराबरी, असमानता और स्वार्थ वादी प्रवृत्तियों का खूब लाभ उठाया। परिणाम यह हुआ, वैदिक ऋषि-मुनियों व वैदिक आचार्यों ने अपने परम पुरुषार्थ से जिस अखंड आर्यावर्त को सजाया, संवारा और उच्च शिक्षा से सर्वोत्तम बनाया था वह वैदिक शिक्षा, वैदिक विज्ञान, वैदिक साहित्य, संस्कृति और धर्म के अभाव में अपंग, लंगड़ा और अंधा हो गया। जन्म के आधार पर उच्च और निम्न माने जाने के भेद भाव का परिणाम यह हुआ कि लाखों की संख्या में हिंदुओं को मुसलमान या ईसाई बनाया गया। यह आज भी निरन्तर चल रहा है। धर्म और अध्यात्म के नाम पर पाखंड और अंधविश्वास फैलाकर अपना स्वार्थ साधने वाले तथाकथित साधुओं, संन्यासियों, प्रवचनकर्ताओं ने हिंदू जाति को भ्रमित और गुमराह किया हुआ है। हिंदू जाति में शिक्षित कहे जाने वाले लोग भी इन बाबाओं और प्रवचनकर्ताओं के मोह में फंसकर अपने विवेक और बुद्धि का सर्वनाश कर रहे हैं।

वेद में सम्पूर्ण मानवता को प्रगतिशील, तर्कवादी, विज्ञानवादी, धर्मवादी, अध्यात्मवादी और परोपकारी बनने का संदेश दिया गया है, उपदेश दिया गया है, प्रेरणाएं दी गई हैं। मुसलमानों ने भारतवर्ष में लगभग 700 वर्षों तक राज्य किया। इस दौरान उन्होंने मुस्लिम मत, सम्प्रदाय और जीवन शैली का भारतीय हिंदू समाज में जबरन फैलाने का प्रयास किया। काफी कुछ इसमें वे सफल भी रहे।

भारतीय हिंदू समाज पिछले 1000 वर्षों से लगभग 2000 जातियों और उप जातियों में बटा हुआ है। जन्मगत जाति को लेकर सब में भयंकर अहंकार और स्वार्थ है। एकता का सूत्र, एकता की माला इसी वजह से तैयार नहीं हो पा रही है। दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है महर्षि दयानन्द के बाद भारतीय समाज को कोई ऐसा नेतृत्वकर्ता, संस्कारकर्ता, अध्यात्मिक संदेश देने वाला, वेदों का उपदेश देने वाला, संस्कृति और धर्म का गौरव ज्ञान कराने वाला, वैदिक शिक्षा प्रणाली और पद्धति का प्रचार प्रसार करने वाला, वेद विज्ञान को विश्व स्तर पर पहुंचाने वाला, संस्कृत साहित्य के उत्कृष्ट मूल्यों को जन-जन तक परोसने वाला और संस्कृत तथा हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के लिए मंत्र देने वाला कोई नहीं पैदा हुआ। भारतवर्ष का दुर्भाग्य रहा दयानन्द जैसा उत्कृष्ट चरित्र के महामानव को विष देने का कार्य उस हिन्दू जाति ने अंग्रेजों के साथ और मुसलमानों के साथ मिलकर किया जिसके लिए महर्षि दयानन्द ने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था। इतिहास को बहुत अधिक परोसने का हमारा कोई ध्येय नहीं है। अतीत बताने का हमारा केवल इतना ही उद्देश्य है कि हम क्या थे, क्या हैं, और अभी क्या होंगे? इस पर यदि आज विचार नहीं किया गया तो आने वाला कल हमारा हमसे प्रश्न पूछेगा जिस देश, धर्म और जाति का कोई गौरव वर्तमान में उज्ज्वल नहीं होता उसका भविष्य कैसे उज्ज्वल होगा? हमें इस पर विचार करना है। 

मैंने यह सब बातें इसलिए भी लिखी हैं हम एक भयंकर विडंबना और विसंगति में फंसते जा रहे हैं। स्वाध्याय और अनुभव के अभाव में, आत्मगौरव के अभाव में, स्वाभिमान के अभाव में हम धीरे-धीरे सिकुड़ते चले जा रहे हैं। आने वाली पीढ़ी को गौरवमयी जो संस्कार और धर्म की शिक्षा देने चाहिए वह नहीं दे पा रहे। मुसलमानों या ईसाईयों की निंदा, आलोचना या उन्हें गाली देने से भारतीय हिन्दू समाज का भला नहीं होने वाला है बल्कि हम अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करेंगे। हमको अपने गौरव को सुरक्षित रखते हुए वेद के उद्देश्यों को विज्ञान और धर्म के प्रेरणाओं को, अध्यात्मिक मूल्यों को, सामाजिक चेतना को, साहित्य और दर्शन में लिखें तत्वों को आत्मसात करने के लिए व अपने जीवन को समर्पित करने के लिए तैयार करें। आपाधापी और भागदौड़ के जीवन में मात्र 1 घंटे या आधे घंटे भी अपने संतानों के बीच में बैठकर यदि हम वेद, उपनिषद्, महाभारत, रामायण आदि की शिक्षाएं देकर उन्हें आत्म गौरव और सच्चे अर्थ में मनुष्य बनने के लिए प्रेरित कर सकें तो यह हमारा बहुत बड़ा कार्य होगा। हम इसे कर पाते हैं कि नहीं कर पाते इसमें न उलझकर हमें यह संकल्प आज ही लेना होगा।

हम स्वस्थ मन, स्वस्थ चेतना से, बुद्धि से पवित्र हृदय से, शुभ उद्देश्य से, वैदिक मूल्यों को अपनी भावी पीढ़ी में पिरोने के लिए  दृढ़ प्रतिज्ञ होंगे। हम यह कर सकते हैं। हमारे पूर्वजों ने इतना कुछ किया। इतने-इतने बड़े ग्रंथ लिख डाले, ज्ञान-विज्ञान के साहित्य रच डाले, लाखों ग्रंथ नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों में आक्रांताओं के द्वारा जलाने के बाद भी यदि बचे हुए हैं तो इसका कारण है हमारी श्रवण परम्परा में ज्ञान का जो धारा चलती रही है वह सबसे पवित्र और उन्नतशील रही है। दूसरी बात यह है लाखों ग्रंथ पुस्तके जलने के बाद भी लाखों पांडुलिपिया जलने के बाद भी आज जितना बचा हुआ है इनका ही यदि हम स्वाध्याय करें, इस पर हम विचार करें। हम बहुत कुछ खोने के बाद भी स्वयं को बचा लेंगे। पश्चिमी जीवनशैली, पश्चिमी विकास के मॉडल, पश्चिमी आदर्श, पश्चिमी मूल्य और पश्चिमी शिक्षा और ज्ञान की पद्धतियों पर हम जितना समय अपना लगाते हैं यदि उसका एक अंश भारतीय शिक्षा, भारतीय ज्ञान-विज्ञान, भारतीय शिक्षा-संस्कृति और धर्म पर लगा दें तो, अपना भविष्य और वर्तमान संवार सकते हैं, निर्मित कर सकते हैं। 

एक पत्थर तो हौसलों से उछालो यारो आसमां में छेद हो सकता है। लेकिन हमें हो क्या गया है सोशल मीडिया और लफ्फेबाजी चुहलबाजी राजनीतिक नौटंकीओं में फंसकर भारतीय हिन्दू समाज अपने वर्तमान को निरंतर बदरंग करता जा रहा है, बिगड़ता जा रहा है, खराब करता जा रहा है, कमजोर करता जा रहा है, शक्तिहीन करता जा रहा है, गौरवहीन करता जा रहा है, आत्महीन करता जा रहा है, विज्ञानहीन करता जा रहा है। यदि हम सब कुछ खो देंगे फिर हमारा अपना क्या बचेगा? इस पर ही विचार करने की आवश्यकता है। आप विचार करिए, ऊपर कहीं गई बहुत सारी बातों पर। क्या आप विचार करेंगे? क्या अपने घर में, अपने समाज में जहां पर भी आप होंगे अपनी संस्कृति, धर्म, साहित्य और अध्यात्म के लिए अपने वैदिक संस्कार के लिए कुछ अर्पित करेंगे? समय देंगे? कुछ अंश कमाए गए धन का देंगे और हिंदू समाज को पथभ्रष्ट करने वाले तथाकथित बाबाओं और प्रवचन कार्यकर्ताओं के चक्कर में नहीं फंसेगे।   

अंधविश्वास और सनसनी वाली बातें हमें क्यों भाने लगी हैं ? तथाकथित सर्वधर्म समभाव की बातें करने वाले प्रवचन कार्यकर्ताओं के प्रवचनों का हम बहिष्कार क्यों नहीं करते ? ऐसे प्रवचन कर्ताओं को हम सबक क्यों नहीं सिखाते ? क्या हम सचमुच इतने विवेकहीन. बुद्धिहीन, विचारहीन व स्वार्थी हो गए हैं कि हम अपना अच्छा बुरा,  हित-अहित सोचने के काबिल भी नहीं रह गए ? योग्य भी नहीं रह गए? सोचिए, बार-बार सोचिए! हजार बार सोचिए ! यदि आज नहीं सोचा तो बीता समय फिर लौटेगा नहीं! विधर्मी लोग आतंकवादी, हिंसक गतिविधियों के द्वारा पूरे संसार में अपना आधिपत्य जमाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद का प्रयोग कर रहे हैं और हम आप जन्मगत जाति के चक्कर में फंसकर अहंकार और लोभ और स्वार्थ के चक्कर में फँसकर अपना सर्वनाश कर रहे हैं। कौन सोचेगा ? आप नहीं सोचेंगे फिर कौन सोचेगा ? हम बाबाओं के चक्कर में क्यों फंसते जा रहे हैं ? हम वैदिक धर्म की पुस्तकों का स्वाध्याय करने के लिए आगे नहीं आते, जो संपूर्ण मानवता को उच्च श्रेणी का संस्कार देने की बात करती हैं। जहाँ  सब गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर है।

हमारे राजनीतिक, समाजसेवी, दिशा दर्शक संत, महात्मा, साहित्यकार प्रशासक, उद्योगपति, वैज्ञानिक, प्रखर वक्ता, संगठनों के प्रमुख, युवाओं के पैरोकार, पत्रकार, सभी अपनी भूमिका भूल कर, अपने स्वार्थ में उलझ कर, अपने वर्तमान और भविष्य को क्यों बर्बाद कर रहे हैं ? क्यों खराब कर रहे हैं ? हम किन विचारों में उलझ कर श्री हीन, कीर्तिहीन हो गए हैं। हमारा दृष्टिकोण ही बदल गया। हम दूसरों की प्रशंसा में कलम तोड़ते जा रहे हैं। वाणी का दुरुपयोग कर रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, इतनी गिरावट कैसे आती जा रही हैं ? हम दूसरों को दोष देने के बजाय आसपास, पास पड़ोस में लोगों को लेकर भारतीय हिंदू समाज को दिशा दें। भारतवर्ष भारतीयों का है। आर्यों का है। उन सभी लोगों का है जो भारतवर्ष से प्यार करते हैं। हम किसी से घृणा न करें, किसी से ईष न करें यह हमारी परंपरा है। यह हमारी संस्कृति की विरासत है। लेकिन हमसे कोई जलन रखता है, द्वेष करता है, हमें कोई मारता है, हमारी संस्कृति और धर्म पर आक्रमण करता है, तो हम उस समय भी यदि नपुंसक और कायर बने रहे तो यह हिंदू होने या मानव होने का कोई लक्षण नहीं है। हम उन पूर्वजों की संतान हैं जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से, अपने ज्ञान व वैभव से, अपने बाहुबल से, अपने धर्म से, अपने श्रम से पूरे संसार को मार्गदर्शन किया। हम आप स्वयं को इतना सामर्थवान बनाएं, इतना ज्ञानवान बनाएं, इतना धनवान बनाएं,  इतना शिक्षावान बनाएं, इतना विद्यावान बनाएं, परोपकारी बनाएं कि हम सबको शिक्षा दे सकें। भटके हुए लोगों को वेद के ज्ञान पर लाकर के मानवता की भलाई में हम सब को आगे बढ़ा सकें। विचार करिए, आप ऐसा कर सकते हैं। बस, आप के संकल्प की आवश्यकता है। दृढ़ प्रतिज्ञ होने की आवश्यकता है। उद्देश्यवान होने की आवश्यकता है। मन की आंखों को खोलने की आवश्यकता है। स्वयं के आत्मगौरव को पहचानने की आवश्यकता है। अपने जीवन धर्म को जानने की आवश्यकता है, और पूर्वजों के दी गई वैदिक संपत्ति को पहचानने की आवश्यकता है। आप हम वहां तक पहुंच सकते हैं जहां तक हमारे पूर्वजों ने कभी पहुंचकर के पूरे विश्व को चकाचैंध कर दिया था। आश्चर्यचकित कर दिया था। तब से भारतवर्ष महान् है। आर्यावर्त महान् है।

 

[ स्रोत - *आर्ष क्रान्ति*  : *आर्य लेखक परिषद्*  का मुख पत्र का मई २०२० अंक ; प्रस्तुति - प्रांशु आर्य ]

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