सुनीता ठाकुर, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
बिखरे रिश्ते सभी यूं कांच के पैमानों से ।
मिलता नहीं घर, ज़हां भर गया मकानों से ।
आसमा की चाह में जमीन छूट गई
हुआ दूर अपनों से कामयाबी के बहानों से।।
डर खौफ फिक्र ना थी जब मां के सीने से लग कर सोता था ।
नींद वो बड़ी सुकून भरी थी बेशक बिस्तर गीला होता था ।
अपनों से भरा घर ही तब मेरा संसार था
धन दौलत की परवाह ना थी मैं बस खुशियां ही संजोता था।।
स्कूल दोस्त खेल खिलौने मुझे कंहा कुछ भाया था।
पुस्तक के चित्रों में अक्स मां-बाप का ही नजर आया था।
फिर सीखने-पढ़ने लगा दुनियादारी में गढ़ने लगा
हुआ सबका मन हर्षित मुकाम जो मैंने पाया था।।
मां बाप भाई बहन नहीं अब तो मेरा अपना परिवार है ।
कोई मुफ़लिस नालायक नहीं रूत्तबेदार मेरे सभी यार है।
झुकता है जमाना देख दौलत शोहरत मेरी
मेरे दर्द-ओ-गम से ना किसी को कोई सरोकार है ।।
अब सूना सा है मां का आंगन पिता की आंखें पथराई सी लगती है।
भीड़ जहां में बहुत है लेकिन घर में तन्हाई सी लगती है ।
ना संग खिलाता कोई ना दर्द में गले लगाता कोई
छूट गया सब अब तो जिंदगी अलसाई सी लगती है।।
बिखरे रिश्ते बिखरा ज़हां..
बिखरी सारी खुदाई लगती है।
दुनियां जीतकर हारा खुद को
अब हर खुशी पराई लगती है ।।
गांव-काम्बलू, तहसील-करसोग, जिला-मंडी हिमाचल प्रदेश।