परछाईं

ममता कर्ण, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
मेरी नुरे नज़र मेरी लख़्ते जीग़र
मेरी नन्ही परी 
कितनी कोमल मासूम है तु 
जुवां नहीं तेरी बोलने को
फिर भी अपनी खामोश 
नजरों से बता देती है सबकुछ
अपनी जरूरत
कब तुझे सोना है कब रोना है
कब हंसना है कब खेलना है
कब खाना है कब नहीं
और सब समझ में आ जाता है
मुझे भी 
तुझे कब क्या चाहिए
आए भी क्यों नहीं
आखिर परछाईं जो है तु मेरी
माँ हुँ मैं तुम्हारी 
पल भर मुझे न देखो तो
कैसे ढुढ़ती तुम्हारी बेचैन नजरें मुझे 
तेरे रोने से मेरा दिल रोता है
तेरे हँसने से एक अजीब सी 
मिलती है खुशी 
जब झल्ला जाती हो
 कहीं आराम नहीं मिलता तुझे
शिवाय मेरे आलिंगन के
मेरा स्पर्श ही काफी होता 
तेरे लिए 
आज तुम शिशु हो
बड़ी भी हो गई तो भी तुम रहोगी सदा परछाईं मेरी ।
जयपुर, राजस्थान

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