मदन सिंघल, शिलचर। धनपत कंजुस ही बल्कि मक्खी चूस के नाम से मशहूर था भगवान् का दिया सबकुछ होने के बावजूद ना कुछ खाता ना किसी को खाने देता। पांच रूपए से दस रूपये ब्याज में मुशिबतों में फंसे लोगों को गहने गिरवी रखकर देता था। काबूली की तरह उसके परिवार का जीना हराम कर देता था। गाँव शहर में एक रूपया भी दान देने की बात दूर किसी की गमीसदी में भी नहीं जाता था। लोग उसे बहिष्कृत मानकर कभी न्यौता भी नहीं देते थे। लाखों रूपये की जयदाद तथा बैंकों में रूपये भरे पड़े थे। एक धोती गंजी में शर्दी में भी ठिठुरता रहता, लेकिन कुछ नहीं खरीदता।
एक दिन धनपत को सांड ने सिंग से मारकर फैंक दिया लेकिन कोई भी उठाने नहीं आया। घंटे भर सिसकता रहा तब दुनीचंद नामक कुल्फी बेचकर आया तो अपने घर में ले गया। बैदजी की दवाई से धनपत ठीक हो रहा था तो दुनीचंद का गरीब परिवार अपनी हेसियत से उपर उठकर सेवा सुश्रुवा करते इससे धनपत पर काफी प्रभाव पङा बोल नही पा रहा था फिर भी सब कुछ देख रहा था।
बैदजी ने दुनीचंद को बताया कि अब धनपत ज्यादा दिन तक जिंदा नहीं रहेगा इसलिए दिनरात सेवा करने से ही आत्मा को शांति मिलेगी धनपत सब सुन रहा था तो घर से अपनी संदुक मंगवाकर चैकबुकों पर हस्ताक्षर किए। हाथ से लिखकर सारी संपत्ति दुनीचंद के नाम करदी। गाँव के लोग काफी खुश हो गये। दुनीचंद को अपना पुत्र घोषित करने के बाद एक रात धनपत का निधन हो गया।
धनपत की अंतिम सवारी धूमधाम से गाजेबाजे के साथ निकाली गई। दुनीचंद ने सारी प्रक्रिया हर्षित मन से की। धनपत की संपत्ति एवं नगदी से दुनीचंद प्रतिष्ठित व्यापारी, किंतु एक धार्मिक आदमी बनकर धनपत के नाम को मशहूर कर दिया।