दादाजी की सुझबुझ ( लघुकथा)

मदन सुमित्रा सिंघल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
सेठ जगन्नाथ गरीबों के मशीहा थे हर कमजोर एवं गरीब को जितना संभव हो हाथ का उत्तर देने के साथ साथ एक बात कहते थे कि यदि तुम भी जगन्नाथ बन जाओ तो ऐसे ही किसी की सहायता करते रहना। लोग खुशी खुशी दादाजी को प्रणाम करते हुए आश्वासन दिए जाते कि अवश्य। अधिकतर लोग भूल जाते थे लेकिन संस्कारी लोग पल्ले में गांठ बांध लेते थे। एक दिन लक्ष्मी नारायण अपने बेटे  बद्रीनारायण के साथ आया तथा मदद के लिए गुहार लगाई कि मुझे दस हजार रुपये चाहिए मकान ओर दुकान बनानी है लेकिन मैं ब्याज नहीं दे पाउंगा। सेठ जगन्नाथ ने कहा इतनी बड़ी रकम बिना ब्याज बिना जान पहचान खैर ले जाओ लेकिन इसके बदले तुझे यह काम करना होगा। लक्ष्मी नारायण दुगने रूपये लेकर सेठ जगन्नाथ की शर्त मानकर चला गया।     
सेठ जगन्नाथ की मृत्यु के बाद लापरवाही एवं दुर्व्यवहार के कारण सारा कारोबार चौपट हो गया। पोते जमीन दुकान मकान बेच बेच कर ऐस करने लगे अब खाने के टोटे पङने लगे तो लोगों की राय पर उंट गाङी में समान रखकर काम की तलाश में निकल पङे। तीसरे दिन एक धर्मशाला में ठहरे तो सामने देखा कि सेठ जगन्नाथ रामनाथ की दुकान उपर मकान तो लोगों को पुछा तो कहा कि लक्ष्मी नारायण बद्रीनारायण में जाकर पुछो यह उनकी ही  दोनों दुकान है। 
दोनों भाई दुकान में गये तो श्याम नारायण ने आवभगत करने के बाद तिजोरी से कागज निकाल कर दिखाए कि यह संपत्ति आपकी है आपके दादाजी ने हमारे दादाजी को मदद करने के साथ कहा था कि ऐसा ही एक मकान एवं एक दुकान हमारी बना देना। काम अच्छा चला इसलिए मेरे दादाजी लक्ष्मी नारायण ने नौ आना ब्याज आपका जमा करते गये। आपकी जमा राशि काफी बढ गई है आप फिर से कारोबार शुरू करे।    दोनों भाईयों ने ग्रह प्रवेश किया तथा दादाजी की सुझबुझ को याद करते हुए कारोबार शुरू किया। आपस में बतलाए कि यदि ऐसा नहीं करते तो खानदान सङक पर आ जाता। 
पत्रकार एवं साहित्यकार शिलचर असम

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