मदन सुमित्रा सिंघल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
आजकल छोटे छोटे घरों में स्वरुची भोज का प्रचलन शुरू हो गया यह अंग्रेजों की देन है भारतीय संस्कृति में ऐसे बेढंगे भोज में कोई भी स्थान ना होते हुए भी सर्वाधिक लोकप्रिय बन रहा है। शास्त्रों में चप्पल जुते पहनकर तथा खङे खङे खाने पर बहुत ही व्यंगात्मक टीप्पणी है जो कथावाचक भी टाल देते हैं अपने यजमानों एवं श्रोताओं को नाखुश करना उचित नहीं समझते। कोई नीडर वाचक हिम्मत करके शास्त्रों के उल्लेख की व्याख्या कर भी दे तो सीर खुजलाकर रह जाते हैं। सच में आनंद तो बैठकर खाने एवं आतिथ्य के साथ सेवा सत्कार से खाना खिलाने में ही दोनों पक्षों को संतुष्टि मिलती है।
इसके लिए पर्याप्त जगह होनी चाहिए जिससे भूलकर भी अतिथियों को पंक्तिबद्ध होकर किसी तरह भोजन सामग्री के लिए हर काउंटर पर याचना करनी पङे। बुजुर्ग महिला एवं बच्चों की हालत दयनीय देखी जाती है। हर आदमी पहले एवं अधिकाधिक आइटम लेना चाहता है क्योंकि ऐसे में हर व्यक्ति अपने आप को भाग्यशाली समझता है कि एक बार में बाजी मार ली जाए। दही बङे एवं खीर मिष्ठान एवं शब्जी सब मिलकर खिचड़ी बन जाते हैं। लोग चंदा देकर उपहार अथवा नगदी देकर आया है तो स्वाभाविक ही है वो अपनी वशुली तो निश्चय ही करेगा। लोग शौचालय के पास कौने में जाकर किसी तरह पेट भरना चाहता है लेकिन लाया क्या?? खाया क्या?? इस झंझट से बचने के लिए सारी प्लेट डस्टबिन में पलट देता था लेकिन आजकल धार्मिक अनुष्ठानों में स्वरुची भोज के नाम लाइन तो लगवाई जाती है लेकिन डंडेधारी जुठा खाना नहीं छोङने देते क्योंकि वो मजबूरी में उपर तक प्लेट इसलिए भरकर लाया क्योंकि दोबारा उसे कुछ भी लाने के लिए फिर लंबी लाइन में लगना पङेगा। डंडेधारी ऐसे मजबूर व्यक्ति को बचा खाना फिर खाने के लिए हवलदारी करते नजर आ रहें होते हैं।
यदि वो ना लेता तो क्या खाता यदि पेट भर खा लिया तो अब कैसे खायेगा इन सब दिक्कतों के लिए आयोजक दोषी होते हैं। उन्हें भोज का आयोजन करने से पहले ऐसी परेशानियों के लिए उचित प्रबंध करना चाहिए। अतिथियों को आमंत्रित करने के लिए सूची बनाने के साथ साथ उनके बैठने एवं ससम्मान भोजन करवाने का दायित्व होना चाहिए। यह भी सच है कि लोगों का उद्देश्य विवाह शादी एवं मांगलिक अवसरों पर एक गिफ्ट देकर भोजन करना होता है उन्हें तीसरे विकल्प से कुछ भी लेना देना नहीं होता इसलिए एक साथ भीड़ होती है। दिन में दो बजे तथा रात में नौ बजे अक्सर लोग समारोह में उपस्थिति दर्ज कराने अथवा अतिथि धर्म निभाने आते हैं इसलिए उन्हें तरह तरह की व्यजनों की ठेलियों से कुछ भी लेना देना नहीं होता किसी तरह पेट भरना होता है।
बङे होटलों रिपोर्ट कल्बों में अधिकांश पढ़े लिखे तथा व्यवस्था के अनुभवी लोगों को देखा गया है कि बङे ही अनुशासन एवं धैर्य के साथ हर कांउटर पर खाने का आनंद लेते हुए बारी आने पर आवश्यकता अनुसार आइटम लेते हैं आजकल सब सामग्रियों के सामने नाम लिखा रहता है। लोकप्रिय एवं प्रचलित प्रथा हटाई तो नहीं जा सकती लेकिन कुछ सुधार वो करें तो कुछ बदलाव हमें भी करना होगा।
पत्रकार एवं साहित्यकार शिलचर, असम