काठ का उल्लू ( लघुकथा)

मदन सुमित्रा सिंघल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

उल्लू को दिन में नहीं दिखता वो सिर्फ रात में ही देख पाता है क्योंकि पृकृति ने उसको यही दिया इसलिए बेचारा वो क्या करें। लोग मनुष्यों को भी इसी तरह चिढाते है तथा वो भी क्या करें अपने ईश्वर प्रदत आशीर्वाद पर खुश रहें अथवा नाखुश कोई खैर खबर नही लेता ना ही वो भी किसी से कोई शिकायत करता, लेकिन काठ का उल्लू ऐसा होता है जो दिनरात देख सकता हैं जहाँ जहाँ उपस्थित हो सकता हैं लेकिन अपनी प्रतिक्रिया कहीं भी नहीं दे पाता। सिर्फ एक सीट रोककर बैठ जाता है कान होने के कारण सबकी सुनता है आंख होने के कारण सब देखता है यदि जलपान अथवा भोजन की व्यवस्था हो तो सबसे पहले लपक कर बाजी मार लेता है। कहीं कहीं वोटिंग होने से लोगों को देखकर वो भी हाथ उठा लेता है ऐसे व्यक्ति को काठ का उल्लू कहा जाता है।

रमेश चन्द्र अच्छा शिक्षित एवं अपनी क्षमता एवं भक्ति के अनुसार अपने परिवार समाज एवं कारोबार में भला इंसान था लेकिन उसे कहीं सहमति अथवा असहमति देने का साहस नहीं था इसलिए चुपचाप ही रहता था। जब एक दिन उसकी बेटी ने पुछा कि पिताजी लोग आपको काठ का उल्लू क्यों कहते हैं तो उदास हो कर बिटिया लोग धूरंधर है जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए अपने घर परिवार रिश्तेदार एवं समाज में धौंस जमाकर अपनी जमीन बना लेते हैं लीडरी करते हैं ऐसे में मैं चुपचाप इसलिए रहता हूँ कि किसी भी भाई को नुक्सान क्यों करूँ। किसी का सेवक बनने से अच्छा है कि काठ का उल्लू ही बना रहूँ ताकि मेरा स्वाभिमान को ठेस तो ना लगे‌। 
पत्रकार एवं साहित्यकार शिलचर, असम

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