मदन सुमित्रा सिंघल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
यह जानेमाने कवि श्रेष्ठ ब्रह्मानन्द जी का भजन है जो काया एवं माया पर है इसमें सपष्ट किया गया है कि कोई ईश्वर का नाम ले अथवा ईश्वरीय काम करें तो आपको विचलित होने की जरूरत नहीं है चाहे कोई रुठे अथवा टूटे। लाभहानि व्यवसाय वाणिज्य में तो ठीक है लेकिन ईश्वर के काम में यह सोचना ही अपने आप को धोखा देना है। फिर भी इसमें नैतिकता ईमानदारी आम सहमति एवं त्याग होना चाहिए।
संगठन के काम के लिए जब हम द्वार द्वार पर धन संग्रह के लिए जाते हैं तो उन्हें भी संगठन के संविधान अ थवा नियमावली के तहत विश्वास में लेना चाहिए तभी आप सफल होंगे। चमङे के सिक्के चलाने का कुप्रयास सिर्फ एक दिन ही चलता है इसलिए आगे ब्रह्मानंद जी कहते हैं
*धरी सिर पाप की मटकी, मेरे गुरुदेव ने झटकी
वो ब्रह्मानंद ने पटकी, अगर फुटे तो फुटन दे
मुझे है काम ईश्वर से जगत रुठे तो रुठन दे"
अक्सर सभा संगठनों में किसी भी विषय को लेकर विचार विमर्श होता है कुछेक मामलों में निश्चित रूप से छिंटाकसी विरोधाभास भी होता है। ऐसी नौबत भी आ जाती है कि झगड़ा भी हो सकता है। इसका मतलब यह कभी नहीं हो सकता कि उसे हमें व्यक्तिगत नहीं लेना चाहिए। अध्यक्ष सचिव को संयम से हर सदस्य के सुझाव शिकायत सुनकर उस पर संतोषजनक जबाब देना ही होगा। समाज के काम के लिए थोड़ा बहुत मान सम्मान के इतर समझौता भी करना चाहिए। हाँ यह सच है कि कुछ लोग अनावश्यक प्रलाप भी करते हैं उन्हें भी गुङ खिलाकर खुश करना होगा।
जहाँ भी जरूरत हो अवश्य बीच बचाव एवं चर्चा में हिस्सा लेना चाहिए। यदि किसी ने उचित समय में मौन साध लिया तो अनर्थ हो सकता है। यदि आपको किसी जगह जाना आना पसंद नहीं है तो अपने आपको अलग कर लेना चाहिए, ना कि किसी की बूराई ना ही अहित की कामना करनी चाहिए। यदि आप वास्तव में योग्य है तो लटक अटक एवं भटक कर लोग पुनः आपके पास आ जायेंगे।
पत्रकार एवं साहित्यकार शिलचर, असम