शिवपुराण से, रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड (461) गतांक से आगे......

देवताओं का हिमालय के पास जाना और उनसे सत्कृत हो उन्हें उमाराधन की विधि बता स्वयं भी एक सुन्दर स्थान में जाकर उनकी स्तुति करना.......

हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर वे बड़े प्रेम से स्तुति करने को उद्यत हुए। शैलराज के शरीर मंे महान् रोमांच हो आया। उनके नेत्रों से आंसू बहने लगे। मुने! हिमशैल ने प्रसन्न मन से अत्यन्त प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और विनीत भाव से खड़े हो श्रीविष्णु आदि देवताओं से कहा। 

हिमाचल बोले- आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरी बड़ी भारी तपस्या सफल हुई। आज मेरा ज्ञान सफल हुआ और आज मेरी सारी क्रियाएं सफल हुई। मेरा कुल धन्य हुआ। मेरी स्त्री तथा मेरा सब कुछ धन्य हो गया, इसमें संशय नहीं है, क्योंकि आप सब महान् देवता एक साथ मिलकर एक ही समय यहां पधारे हैं। मुझे अपना सेवक समझकर प्रसन्नता पूर्वक उचित कार्य के लिए आज्ञा दें। हिमगिरी का यह वचन सुनकर वे सब देवता बड़े प्रसन्न हुए और अपने कार्य की सि(ि मानते हुए बोले।

देवताओं ने कहा-महाप्राज्ञ हिमाचल! हमारा हितकारक वचन सुनो। हम सब लोग जिस काम के लिए यहां आये हैं, उसे प्रसन्नतापूर्वक बता रहे हैं। गिरिराज! पहले जो जगदम्बा उमा दक्षकन्या सती के रूप में प्रकट हुई थीं और रूद्रपत्नी होकर सुदीर्घकाल तक इस भूतल पर क्रीडा करती रहीं, वे ही अम्बिका सती अपने पिता से अनादर पकर अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण करके यज्ञ में शरीर त्याग अपने परम धाम को पधार गयीं। हिमगिरे! वह कथा लोक में विख्यात् है।                       (शेष आगामी अंक में)

Post a Comment

Previous Post Next Post