शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (464) गतांक से आगे......

उमा देवी का दिव्य रूप से देवताओं को दर्शन देना, देवताओं का उनसे अपना अभिप्राय निवेदन करना और देवी का अवतार लेने की बात स्वीकार करके देवताओं को आश्वासन देना

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! देवताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर दुर्गम पीड़ा का नाश करने वाली जगज्जननी देवी दुर्गा उनके सामने प्रकट हुई। वे परम अदभुत दिव्य रत्नमय रथ पर बैठी हुई थीं। उस श्रेष्ठ रथ में घुंघुरू लगे हुए थे और मुलायम बिस्तर बिछे हुए थे। उनके श्रीविग्रह का एक-एक अंग करोड़ों सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान और रमणीय था। ऐसे अवयवों से वे अत्यन्त उदासित हो रही थीं। सब ओर फैली हुई अपनी तेजोराशिके मध्यभाग में वे विराजमान थीं। उनका रूप बहुत ही सुन्दर था और उनकी छवि की कहीं तुलना नहीं थी। सदाशिव के साथ विलास करने वाली उन महामाया की किसी से समानता नहीं थी। शिवलोक में निवास करने वाली वे देवी त्रिविध चिन्मय गुणों से युक्त थीं। प्राकृत गुणों का अभाव होने से उन्हें निर्गुणा कहा जाता है। वे नित्यरूपा हैं। वे दुष्टों पर प्रचण्ड कोप करने के कारण चण्डी कहलाती हैं, परन्तु स्वरूप से शिवा (कल्याणमयी) हैं। सबकी सम्पूर्ण पीड़ाओं का नाश करने वाली तथा सम्पूर्ण जगत् की माता हैं। वे ही प्रलयकाल में महानिद्रा होकर सबको अपने अंग में सुला लेती हैं तथा वे समस्त स्वजनों (भक्तों) का संसार-सागर से उद्धार कर देती हैं। शिवा देवी की तेजाराशि के प्रभाव से देवता उन्हें अच्छी तरह देख न सके। तब उनके दर्शन की अभिलाषा से देवताओं ने फिर उनका स्तवन किया। तदनन्तर दर्शन की इच्छा रखने वाले विष्णु आदि सब देवता उन जगदम्बा की कृपा पाकर वहां सुस्पष्ट दर्शन कर सके। 

                                                                                                           (शेष आगामी अंक में)

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