मृत्यु भोज प्रथा: सामाजिक अभिशाप या एकता

एड.अलप भाई पटेल, शिक्षावाहिनी समाचार पत्र।

आखिरकार मृत्यु भोज क्या है और इसका निर्माण या इस प्रथा का प्रचलन कहां से और कैसे आया और मृत्यु भोज जैसी प्रथा सिर्फ भारत जैसे देश में ही क्यों प्रचलित है?  पृथ्वी पर बहुत सारे देश हैं और उन देशों में भी मृत्यु होती ही होगी फिर भी वहां के देशों में यह प्रथा क्यों नहीं और भारत जैसे देश में ही मृत्यु भोज की प्रथा क्यों पाई जाती है?

मृत्यु भोज जैसी प्रथा पर विद्वानों और बौद्धिक विचारवानों के अलग-अलग विचार हैं अधिकांश बौद्धिक विचारधारा के लोग मृत्यु भोज जैसी प्रथा का विरोध ही करते हैं और मृत्यु भोज की प्रथा को अभिशाप की श्रेणी में रखते हैं। अभिशाप की श्रेणी में रखने के पीछे तर्क भी इनका सही ही मालूम होता है की एक परिवार में परिवार के सदस्य की मृत्यु हो हुई हो और दूसरी तरफ भोज की व्यवस्था हो अगर हम सब इस परिदृश्य से देखें तो मृत्यु भोज वाकई अभिशाप है पर यह पक्ष सिर्फ एक पक्ष है

मृत्यु भोज की प्रथा को आंकलन या उसके निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उस व्यवस्था के निर्माण काल के समय का भी आकलन करना पड़ता है। कि कोई भी प्रथा या व्यवस्था आज है तो क्या वह व्यवस्था उसी रूप में है जिस रूप में वह व्यवस्था बनाई या शुरुआत की गई थी। समय के साथ-साथ हर व्यवस्था या प्रथा में कुछ ना कुछ अपभ्रम या पाखंड जुड़ जाते हैं जैसे दान की चीज अगर कोई भी चीज या वस्तु यहां दान दी जा रही है है तो मृतक व्यक्ति उस समान या वस्तु का भोग करेगा

यह सब चीजें अपभ्रम या पाखंड है और इस तरह की चीजों का जुड़ाव समय के बदलते स्वरूप के साथ हुआ है इस तरह की व्यवस्था जो दान पूर्ण वाली है यह एक अभिशाप है ना की मृत्यु भोज।मृत्यु भोज के निर्माण या मृत्यु भोज की प्रथा को समझने के लिए भारत की व्यवस्था को समझाना पड़ेगा कि भारत देश में यह प्रथा या व्यवस्था क्यों है?

भारत एक कबीलाई प्रथा का देश रहा है और हर एक कबीले का अपना एक सरदार होता था जिसकी झलक आज भी हर घर में पाई जाती है घरों के मुखिया के तौर पर कबीलाई प्रथा में कबीलों में काबिले का सरदार या मुखिया की मृत्यु के बाद दूसरे कबीले के मुखिया या सरदार को यह बताने या सूचना देने के लिए बुलाया जाता रहा था कि हमारे कबीले के सरदार या मुखिया की मृत्यु के बाद कबीले का मुखिया या सरदार अब किसी और व्यक्ति को बनाया जाता है।

कबीले का नया मुखिया या सरदार बनाए जाने पर भोज जैसी प्रथा का आयोजन किया जाता था क्योंकि उस दिन नए सरदार या मुखिया की नियुक्ति या चयन होता था और कुछ भी नया होने पर कबीलाई प्रथा में भोज की व्यवस्था होती थी उस समय कुछ चुनिंदा अवसर ही थे जब कई कबीलों के मुखिया या सरदार एक साथ एकत्रित होते थे यह अवसर शादी विवाह और मृत्यु (एक सरदार या मुखिया की की मृत्यु के बाद नए सरदार या मुखिया की नियुक्ति) इन्हीं चुनिंदा अवसरों पर कबीलो को एक दूसरे कबीले के साथ मिलने बैठने और समझने का मौका मिलता था।

इन दो व्यवस्थाओं शादी और मृत्यु भोज के अलावा तब और कोई दूसरी व्यवस्था नहीं रही होगी जिससे एक दूसरे कबीले के लोग एक दूसरे कबीले के साथ मिल सके और सामाजिक एकता और अखंडता को और आगे बढ़ा सके। इसलिए मृत्यु भोज जैसी प्रथा समाज के दिए अभिशाप नहीं बल्कि एक सामाजिक एकता का प्रतीक है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट उत्तर प्रदेश 

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