राज शर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
लोक व्यवहार में अक्सर स्त्रियों को एक बहुचर्चित ताना प्रचलित युगों युगों दिया जाता रहा है। "बड़ी आई सती सावित्री", परन्तु कभी गौर किया कभी की ऐसा क्यों कहा जाता है। आखिर सावित्री थी कौन? क्यों यह नाम व्यंग्यार्थ में लेते हैं लोग। वास्तव में सावित्री परिहास की पात्र नहीं, बल्कि आदर्श एवं सतीत्व की पराकाष्ठा लिए परम पतिव्रता नारी थी, जिसने अपने पतिव्रता धर्म के बल पर साक्षात धर्मराज से अपने पति के प्राण वापिस लिए थे।
भारत भूमि में मद्र राज्य में सम्राट अश्वपति बहुत ही पुण्यात्मा एवं धर्मात्मा राजा थे। जीवन में हर तरह का सुख वैभव था, परन्तु कमी थी तो पुत्रधन की। राजा विधातृ स्वरूपा माता सावित्री के ओम साधक थे। राजा अश्वपति नित्यप्रति सावित्री मंत्र से एक लक्ष (एक लाख) आहुति देकर दिन के पांचवे प्रहर में भोजन करता था। राजा ने अठारह वर्षों तक कठिन साधना की जिससे भगवती सावित्री ने राजा को दर्शन दिए। भगवती ने एक तेजस्विनी कन्या होने का वर दिया। कुछ समय के पश्चात राजा के यहां एक कन्या ने जन्म लिया।
जब नामकरण संस्कार हुआ तो कन्या का नाम सावित्री रखा गया। कन्या जब विवाह की अवस्था की हो गयी तो राजा चिंतित रहने लगे। कहीं भी योग्य वर न मिला तो राजा ने सावित्री से कहा कि वह स्वयं अपना वर खोजे। सावित्री ने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करके तीर्थाटन के लिए चल पड़ी और वर को भी खोजने लगी। चलते-चलते वन में एक राज परिवार से भेंट हुई जो राज्य से निष्कासित किए गए थे। राजा की आंखों की रोशनी बिल्कुल मन्द पड़ चुकी थी। सावित्री ने इन्ही राजा के पुत्र सत्यवान को मन ही मन पति मान लिया था। दोनो का विवाह हो गया। सत्यवान अल्पायु था। सावित्री को जब इस बात का पता चला तो उसने उसी समय से वट वृक्ष के पास जाकर एक पतिव्रत धर्म व्रत का अनुष्ठान किया, जिसे कालांतर में वट सावित्री व्रत का नाम दिया गया। पुराणों में ऐसा भी वर्णन आया है कि इसी व्रत के प्रभाव से सावित्री में कई तरह के दैवीय गुण एवं शक्ति समाहित हो गयी।
जब सत्यवान की आयु निश्चित समय पर पूरी हो चली तो स्वयं धर्मराज सत्यवान के प्राण लेकर जब अपनी संयमनी पुरी की ओर चल पड़े तो सावित्री भी उनके मार्ग का अनुसरण करके पीछे हो ली। वह कई योजन की दूरी तय कर चुकी थी। कई तरह के दारुण पड़ावों को पार करके जब वैतरणी पार करनी थी तो धर्मराज ने देखा कि मेरे पीछे कोई आ रहा है। यहां पर देवी सावित्री एवं धर्मराज जी का बहुत सम्वाद होता है। अंततः धर्मराज सती सावित्री को उसके पति के प्राण लौटाने पड़े थे।
इस प्रकार वट वृक्ष की पूजा करें :-
स्वच्छ वस्त्र धारण करके एक लोटे में जल भरकर। जल से वट वृक्ष को सींचे, फिर तने को चारों ओर सात बार कच्चा धागा लपेट कर तीन परिक्रमा करें। अपनी साड़ी के पल्लू से वट वृक्ष को हवा करें। तत्पश्चात सत्यवान−सावित्री की कथा सुननी चाहिए। इसके बाद भीगे हुए चनों का बायना निकाल कर उस पर यथाशक्ति रुपए रखकर अपनी सास को देना चाहिए तथा उनके चरण स्पर्श करने चाहिए। घर आकर जल से अपने पति के पैर धोएं और आशीर्वाद लें। उसके बाद अपना व्रत खोल सकती हैं।
संस्कृति संरक्षक, आनी (कुल्लू) हिमाचल प्रदेश
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