सुनील वर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
अभी हाल ही में भारत में दो शब्द का जन्म हुआ एक सेल्फी और दूसरा असहिष्णुता। एक ओर मृतप्रायः पडी कांग्रेस के लिए इस असहिष्णुता शब्द ने आक्सीजन का काम किया तो दूसरी तरफ इसी शब्द ने बडे-बडे सेलिब्रिटी और तमगेबाजों को मिट्टी में मिलाने का काम भी किया है। सेल्फी जैसे शब्द को लाईमलाईट में लाने वाले नरेन्द्र मोदी को न केवल जनता का प्रिय बना दिया, बल्कि इसी सेल्फीश् ने उनको देश के प्रधानमंत्री के पद तक भी पंहुचा दिया। दूसरी ओर इसी सेल्फी न जाने कितनो को जेल से लेकर मौत तक से मिलवा दिया। अभी हाल ही में यूपी के बुलंदशहर में डीएम के पद पर तैनात एक दंबग महिला आईएएस को इसी सेल्फी ने सेलीब्रिटी के मकाम पर पहुंचाने का काम किया तो दूसरी तरफ इस दंबग अधिकारी की इसी सेल्फी ने एक 18 साल के लडके को जेल तक भिजवा दिया। इतना ही नहीं जब एक बडे अखबार के रिपोर्टर ने फोन पर इस समाचार की पुष्टि करनी चाही, तो दबंग अफसर ने जिस लेंग्वेज का इस्तेमाल उस रिपोर्टर के प्रति किया, उसे सुनकर तो कहीं से भी ऐसा नही लगता कि ये आईएएस सर्वोच्च प्रशासनिक संस्था से ट्रेनिंग लेकर आई है। ये ठीक है कि किसी लडकी या महिला की इजाजत के बिना उसका फोटो खीचना कानूनी रूप से ही नही नैतिक रूप से भी गलत है, पर ये (उन महिलाओ के लिए जो एक रिश्ते-नातो को निभाते हुए पर्दे में रहती हैं) उन पर ही लागू हो तो समझ में आता है, लेकिन जिनकी तस्वीर रोज अखबारो में छपती हो और जो खुद भी रोज फेसबुक अपडेट रखने का शौक फरमाती हो, जिन्हें कैमरे और लाईम लाईट में रहना पंसद हो उनके द्वारा इस तरह रिएक्ट करना क्या ठीक है? एक तरफ इसी मीडिया के कैमरो का सहारा लेकर आप सेलिब्रेटी बनना चाहती हैं, दूसरी तरफ उसी मीडिया के एक छोटे से प्रश्न पर उनके खिलाफ मुकदमें दर्ज कराकर उनके दफ्तरों में कूडा भरवाना कहां तक उचित है।
एक छोटे से पुलिसकर्मी को 100 रूपये के लिऐ सरेआम जलील करो, दूसरी तरफ करोड़ों की संम्पत्ति के ब्यौरे को डिस्प्रिन की गोली समझकर डकार जाओ। ये कहां का न्याय है क्या किसी भी आचरण से पहले अपने गिरेबान में नहीं झांकना चाहिये।
वरिष्ठ पत्रकार खतौली, (मुजफ्फरनगर) उत्तर प्रदेश