अ कीर्ति वर्द्धन, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
यही तो समझना चाहता हूं। पहली बात तो हमारी संस्कृति में शास्त्रानुसार कोई दहेज शब्द नहीं है। हमारे यहां शादी कोई कान्ट्रेक्ट नहीं है जैसे इस्लाम में होती है जिसमें मेहर की रकम तय की जाती है। हम ईसाई भी नहीं हैं जहां यह समझौता कहलाता है। सनातन में शादी बात जन्मों का बंधन है। कन्या पक्ष अपनी बेटी व वर पक्ष को जो देता है वह उपहार तथा कन्याधन होता है। जब तक रिश्ता तय नहीं होता तब तक कौन क्या देगा क्या लेगा बात करो। इसमें कोई बुराई नहीं। हां अगर तय होने के बाद एक पैसे की भी बात हो वह अपराध है।
रिश्ते से पहले कोई कुछ मांग करें तो हम वहां शादी क्यों करते हैं? विचार करें?
यह स्थिति दोनों ही पक्ष पर लागू होती है। अगर लड़का किसी हिरोइन को चाहे तो उसे अपनी सामर्थ्य भी देखनी होगी और लड़की की इच्छा भी। यही बात कन्यापक्ष पर भी लागू होती है।
हमारा मानना है कि रिश्ता करने से पहले सब तय करो मगर बाद में एक पैसे की भी बात न हो। दोनों पक्ष अपना सम्मान रखें। यह बात केवल शादी तक नहीं अपितु सारी जिंदगी के लिए होती है।
शादी के बाद कन्यापक्ष की इच्छा कब क्या कितना दे अथवा नहीं दे।
एक बात और, हम अपनी झूठी शान शौकत के लिए बड़ा घर तलाशते हैं। अब कोई यह नहीं पूछता कि लड़के का चाल चलन और खानदान कैसा है, अपितु यह देखते हैं कि कितना कमाता है। अगर कोई कहे कि हमारी कोई डिमांड नहीं तो वहां हम अपनी बेटी की शादी नहीं करते। सोचते हैं कोई कमी तो नहीं। हमारी बेटियां आजादी से रहें उसके लिए हम परिवार नहीं तलाशते बल्कि अकेला लड़का या नौकरी वाला लड़का तलाशते हैं। कमियां हम सबकी हैं मगर दहेज की आड़ में वरपक्ष को आरोपित किया जाता है।
दहेज लेना ना देना दोनों ही अपराध हैं तो कन्यापक्ष भी अपराध क्यों करता है।क्या दहेज देने पर आज तक किसी पर मुकदमा चला या सजा मिली, शायद नहीं।
गम्भीरता से विचार करें। हमारी बेटियों के लिए आज प्राथमिकताएं बदल गई हैं।
मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश