गीता काव्य रुप में

अनिल पांचाल सेवक, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
नवम अध्याय गीता -9*
   
*मैं सूर्य रुप से तपता हूं,*
*वर्षा को फिर बरसाता हूं।*
*मैं चंद्र रुप शीतलता से,*
*अमृत की वर्षा करता हूं।*
*धन धान्य पूर्णकर पृथ्वी से,*
*मैं सबको भोजन देता हूं।*
*धन धान्य फल फूल जब होवे,*
*मैं सबका पोषण करता हूं।*
*जब पुण्य अधिक बढ़ जाता है,*
*तब स्वर्ग लोक में जाते हैं।
पुण्य क्षीण हो जाने पर,*
*फिर मृत्यु लोक में आते हैं।*
*पत्र पुष्प फल करे भेंट वो,*
*प्रेम से सब ले लेता,*
*वहीं भक्त मेरा पूर्ण है,*
*जिसको मैं अपना लेता।*
*ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य या शूद्र हो,*
*जात- पात का भेद नहीं।*
*जो मुझको प्रेम से भजता है,*
*फिर उसमें कोई भेद नहीं।*
*साथ नहीं इसके कोई  आता,*
*जीव अकेला जाता है।*
*पाप पुण्य जो कुछ भी करता,*
*वही साथ में जाता है।*

*दसवां अध्याय गीता-10*

*पूर्व ब्रह्म ब्रह्मादिक से, 
अरु सप्त ऋषि सनकादीक से।*
*यह चौदह मनु और  सभी प्रजा, 
संसार का मैनें खेल रचा।
*मैं हूं सब के भीतर योग, 
पार ब्रह्म मुझको कहते लोग।*
*अर्जुन कहे जोड़ कर हाथ, 
हाल कहो सब अपना नाथ।*
*मैं हूं सब देवों का देव, 
ये नहीं जान्यो मेरो भेद।*
*सूर्य का तेज जल का रस,
 तेजस्वियों का हूं तेजस्वी।*
*पृथ्वी में गंध शब्द आकाश, 
पुरुषों का मैं हूं पुरुषार्थ।*
*बलवानों का बुद्धी ओर बल, 
धर्म वालों का धर्म अचल।*
*नक्षत्रों में मैं हूं चन्द्र,
 विष्णु आदित्यों के अंदर।*
*वेदों में मुझे जानों साम, 
शस्त्रधारियों में मैं हूं राम।*
*इन्द्रियों में मुझे समझो मन, 
प्राणी मात्र में  हूं चेतन।*
*सिद्धों में मुझे कपिल पहचान, 
पुरुषों में मुझे राजा जान।*
*यादवों में वासुदेव स्वरूप, 
पाण्डवों में अर्जुन रुप।*
*ऋतुओं में मैं हूं बसंत, 
मेरी माया है अनंत।*
*सुन लगाकर अर्जुन ध्यान, 
जो वस्तु है किर्ति वान।*
*शोभाशाली और प्रशंसक
,उनमें जानों मेरा अंश।*
*देवताओं में मैं हूं इन्द्र, 
महाप्रलय पर मैं हूं रुद्र।*
~~~~~~~~~~~~~~~

 *ग्यारहवां अध्याय गीता-11*

*हे प्रभु हे दीनानाथ,*
 *मेरी लज्जा अब तेरे हाथ,*
*मुझको ऐसा ज्ञान सुनाकर,*
*मेरे मन का मोह मिटाकर।*
*विनती करूं मैं स्वीकार,*
*प्राणियों के तुम सर्जन हार।*
*साक्षात मोहे दर्श दिखाओ,*
*जन्म मेरा तुम सफल बनाओ।
*अति प्रसन्न होकर भगवान,*
*ज्ञान चक्षु अर्जून को कर दान।
*ओर कहा है पाण्डु पूत,*
*देख मेरा तू विश्व स्वरुप।*
*उसका था ऐसा चमत्कार,*
*जैसे सूरज एक हजार।*
*एक समय आकाश में आवे,*
*मिलकर अपना तेज दिखावे*
*रंगबिरंगे पहने वस्त्र,*
*देह पर सजे अनेकों शस्त्र।*
*पद्म चक्र गदा और शंख,*
*मुकुट पर धारण मोर पंख।*
*ऐसा अद्भुत देख स्वरूप,*
*अर्जुन गया आश्चर्य में डूबे।*
*हाथ जोड़ प्रभु नमस्कार,*
*माया तेरी है अपरंपार।*
*रुप है तेरा कैसा सुंदर,*
*देख रहा मैं तेरे अंदर।*
*सभी देवता और प्राणी,*
*ऋषि मुनि और ज्ञानी।*
*न आदि न तेरा अंत,*
*सबका स्वामी तू अनन्त।*
*सब जीवों का तू आधार,*
*व्यापक तुझसे हे संसार।*
*विकराल रूप जब प्रभु बनायो,*
*अर्जुन को भयभीत बंधायो।*
*अनेक नेत्र ओर भुजा करोड़,*
*जबड़े फैले चारों और।*
*इतने लम्बे लम्बे दांत,*
*देख के हृदय जावे कांप।*
*दुर्योधन और कर्ण से जवान,*
*द्रोण भीष्म थे पिता समान।*
*अनेकों राजे और महाराजे,*
*मुख के अंदर दौड़े जाते।*
*नदी वेग ज्यूं जल प्रवाह,*
*समुद्र में वह गिरता जाय।*
*दांतों में कई गए हैं पीस,*
*फंसे कई जबड़ों के बिच।*
*उनको निगल निगल कर आप,*
*आनन्द से रहे जीभ से चाट।*
*ऐसा देख भंयकर रुप,*
*अर्जुन के गए छक्के छुट।*
*विनती करती जोड़कर हाथ,*
*सच कहो प्रभु कौन हैं आप।*
             कृष्ण उवाच
*मैं हूं सब जीवों का काल,*
*क्षय करने आया संसार।*
*सम्मुख खड़े हैं योद्धा सारे,*
*इन सबको पहिले ही मार।*
*तेरा तो केवल है नाम,*
*कर्ता धर्ता मुझको जान।*
*मान तो अर्जुन कहना मान,*
*जिससे हो तेरा कल्याण।*
*अर्जुन कहे न पावे पार,*
*माया तुम्हारी अपरम्पार।*
*नमस्कार तोहे जग के कर्ता,*
*नमस्कार तोहे दुःख के हर्ता।*
*नमस्कार तोहे बारम्बार,*
 *पा न सके कोई तेरा पार।*
*उग्र रुप यह देखकर तेरा,*
*डर से कांपे हृदय मेरा।*
*तुम हो सब देवों के देव,*
*मैं नहीं जान्यो तेरो भेद।*
*मेरे मन का भय आप मिटाओ,*
*चतुर्भुज मोहे रुप दिखाओ।*
*शांत रुप फिर प्रभु बनायो,*
*अर्जुन को धीरज बंधायो।*
*ओर कहा है अर्जुन प्यारे,*
*भाग्य तेरे हैं सबसे न्यारे।*
*विश्व रुप जो तुझे दिखाया,*
*पहले कोई देख ना पाया।*
*निष्काम कर्म और सच्ची भक्ति,*
*प्रभु मिलन की केवल युक्ती।*


*बारहवां अध्याय गीता -12*

*जो न किसी को देवे क्लेश,*
*मन में कभी न लावे द्वेष।*
*सुख दुःख में जो रहे समान,*
*उसको मेरा प्यारा जान।*
*स्तुति और निंदा एक समान,*
*मित्र शत्रु में भेद न जान ।*
*विकार जिसे न सके ही डिगा,*
*और मुझमें रखें दृढ़ निष्ठा।*
*कर्म करें मन से न त्यागे,*
*वह मुझे अति प्यारा लागे।*
*हर्ष होय या होवे शोक,*
*मन में रखे सदा संतोष।*
*क्रोध छोड़ लोभ को त्यागे,*
*वह मुझको अति प्यारा लागे।
*जो भक्त मेरे को भजते हैं,*
*मैं उनकी नाव चलाता हूं।*
*वो जो कुछ प्रेम से देते है,*
*मैं  वहीं प्रेम से पाता हूं।*

*तेरहवां अध्याय गीता -13*

*शरीर माया जीव ब्रह्म है,*
*अंदर बैठा करता कर्म।*
*खेत में बोवे सुंदर धान,*
*उत्तम हो फल उसका जान।*
*पंचतत्व का ये है खेल,*
*कैसा सुंदर बन गया मेल।*
*जीव आत्मा इसे बनाओ,*
*परमानंद शान्ति तुम पाओ।*
*ब्रह्म जीव का सुंदर सार,* 
*अर्जुन मन में करो विचार।*
*नाशवान इस देह को जान,*
*इसमें जीव अनादि मान।*

*चौदहवां अध्याय गीता -14*

*माया का यह है विस्तार,*
*जिससे रचा गया संसार।*
*तीनों गुण प्रकृति में रहते,*
*सत्व रज तम इनको कहते।*
*इन्हीं तीनों गुणों से भाई,*
*आत्मा देह में बांधी जाई।*
*संतों गुणी है सबसे आला,*
*सुख शांति का देने वाला।*
*इसका सबसे ऊंचा स्थान,*
*शुद्ध आत्मा निर्मल ज्ञान।*
*रजोगुण जो पकड़े जोर,*
*आत्मा को को दे ज्ञान से मोड़।*
*रागात्मक ही इसको कहते,*
*लोभ मोह जो इसमें रहते।*
*तमोगुणी का है ये हाल,*
*अज्ञान का पर्दा देवे डाल।*
*निद्रा आलस्य में देवे डुबा,*
*कर्तव्य अपना देवे भुला।*
*सात्विक गुण तू धारण कर,*
*रज और तम को दूर ही धर।*
*करें जो सात्विक मन और बुद्धि,*
*अर्जुन मिले स्वर्ग का सुख।*

====================
*पंद्रहवां अध्याय गीता -15*

*उपर मूल नीचे शाखा है,*
*वेद उपनिषद सब पत्ते है।*
*संसार वृक्ष इसे कहते है,*
*चौरासी लाख का चक्कर है।*
*आदि पुरुष मूल है जिसका,*
*ब्रह्मा जिसकी शाखा है।*
*संसार वृक्ष बिल्कुल वैसा है,*
*वेद शास्त्र सब पत्ते डाली है।*
••••••••••••••
*मूल रूप से जाने इसको,*
*आत्म तत्व का ज्ञानी है।*
*काम क्रोध मद लोभ कोंपले,*
*सब ही पाप निशानी है।*
••••••••••••••••••••••••••••••••
*जिसके स्मरण मात्र से ही,*
*सब भवबंधन कट जाते हैं।*
*याद करो तुम उसी वक्त,*
*वह तुमसे मिलने आते हैं।*
••••••••••••••••••••••••••••••••
*साथ नहीं इसके कोई जाता,*
*जीव अकेला जाता है।*
*पाप पुण्य जो भी कुछ करता,*
*वही साथ में जाता है।*
••••••••••••••••••••••••••••••••
*सूर्य चन्द्रमा अग्नि सब में ,*
*तेज मेरा अर्जुन तुम जानो।*
*प्राणी मात्र में आत्म रुप से,*
*तत्व मेरा अर्जून मुझे मानो।*
•••••••••••••••••••••••••••••••••

*सोलहवां अध्याय गीता -16*

*देवी सम्पदा तुझे बताऊं,*
*उनकी बातें सभी सुनाऊं।*
*महापुरुष ओर महानुभाव,*
*शुद्ध आत्मा उच्च स्वभाव।*
*परोपकार जिनके कर्म,*
*सत्य अहिंसा जिनका धर्म।*
*तृष्णा छोड़ कर्म फल त्यागी,*
*ऐसे पुरुष महा बड़े भागी।*
*दयावान क्षमा के रुप,*
*इसलिए दिखाया मेरा रुप।*
*तेरा रूप तूं खुद पहचान,*
*तुझे बताऊं सुन धर ध्यान।*
*यह जान तू पाण्डव पूत,*
*जन्म मरण से जावे छुट।*
*दैवी सम्पदा इनको जान,*
*नारायण कहे सत्य बखान।*
*आसुरी सम्पदा उनको कहते,*
*कई लोग इस जग में रहते।*
*परमेश्वर को वह नहीं माने,*
*धर्म - अधर्म का भेद न जाने*
*पाप कर्म में रहते रत,*
*कहते झूठा सभी जगत।*
*ऐसा मन में करे विचार,*
*करे पाप और अत्याचार।*
*कर अन्याय धनी बन जावे,*
*विषय भोग में उसे उड़ावे।*
*ईश्वर की वह निंदा करते,*
*अंहकार में फिर अकड़ते।*

*सत्रहवां अध्याय गीता -17*

*सात्विक हो जिनकी श्रद्धा,*
*सात्विक हो जिसका उत्साह।
*सात्विक जिसका यज्ञ और दान,*
*सात्विक जिसका तप और ज्ञान।*
*सात्विक हो जिसका आहार,*
*निश्चित मिले स्वर्ग का द्वार।*
*सदा लगाओ मेरा ध्यान,*
*हर दिन क्यों मेरा सुमिरन।*
*और कर्म सब कर दे त्याग ,*
*आ अर्जुन मेरे शरण लाग।*
*वर्ण मेरी जो आकर रहता,*
*सभी पाप मैं उसके हर्ता।*
*परमधाम वो मेरा पाते,*
*पुनर्जन्म में कभी न आते।*
*अगम अनादि अनंत स्वरूप,*
*कोई देख नहीं पावे मेरा रुप।*
*मैं ही हूं सबके भितर योग,*
*पारब्रह्म मुझे कहते हैं लोग।*

*अठारहवां अध्याय गीता -18*

*जीव सनातन ब्रह्म अंश हैं,*
*ज्ञानी जन कोई कोई जाने है।
*जिसको तू अपना कहता है,*
*वह नहीं कुछ साथ में जाता है।*
*यह संसार स्वप्न की माया,*
*पड़ी रहेगी यहीं पर काया।*
*नीचे ऊपर दाएं ओर बाएं,*
*व्यापक रहा सब जग के माहे
 मेरा घर नहीं तिरथ मंदर,*
*बैठा सबके हृदय के अन्दर।*
*सुनता हूं मैं सबकी बात,*
*चारों दिशाएं  मेरे हाथ।*
*सब जीवों का पालन कर्ता,*
*सबका कर्ता- धर्ता ओर संहर्ता।*
*मेरा अनुपम यह उपदेश,*
*इसे फैलाओ देश विदेश।*
===================
*नित्य करें जो गीता पाठ,*
*पाप न आए उसके पास।*
*सदा रहेगा वह मेरे पास,*
*होता नहीं उसका विनाश।*
====================
*जो कोई सुनें लगाकर कान,*
*वह भी मिलता मुझमें आन।*
*अर्जून बोला जोड़कर हाथ,*
*हे दीनबंधु हे दीनानाथ।*
*दूर हुआ अब मेरा अज्ञान,*
*युद्ध करुंगा निश्चय जान।*
*संजय कहे सुनो धृतराष्ट्र,*
*विजय खड़ी जहां बांधे हाथ।*
*जहां मिले ऐसा संयोग,*
*अर्जुन गांडीव कृष्ण का योग।
*अन्तिम विनती हे भगवान,*
*श्रद्धा भक्ति से किजो दान।*
*विषय विकार मिटाओ मेरे,*
*शरण में पड़ा हूं प्रभु तेरे।*
*शरण में तेरी जो कोई आवे,*
*परमधाम वैकुंठ सिधावे।*
*मेरे दीनबंधु हे दीनानाथ,*
*अर्जुन का तुम पकड़ो हाथ।*
*मैं हूं प्रभु शरणगत तुम्हारे,*
*तेरे सिवाय कोई नहीं है मेरे।*
*आत्मा में ईश्वर को जानो,*
*इसमें फ़र्क जरा न मानो।*
*त्रिगुणी माया का चक्कर,*
*मुरख गोते लगाता है।*
*पतित पावन नाम उन्हीं का,*
*बेड़ा पार लगाया है।*
*शरण पड़ा हूं नारायण तेरे,*
*अवगुण माफ करो तुम मेरे।
*ऐसे अभिमानी ओर नीच,*
*गिरते घोर नरक के बीच।*
उज्जैन, मध्यप्रदेश

Post a Comment

Previous Post Next Post