शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (466) गतांक से आगे......

उमा देवी का दिव्य रूप से देवताओं को दर्शन देना, देवताओं का उनसे अपना अभिप्राय निवेदन करना और देवी का अवतार लेने की बात स्वीकार करके देवताओं को आश्वासन देना..........

उसके हेतु का विचार करके अपने प्रभु शिव का स्मरण करती हुई भक्तवत्सला दयामयी उमा देवी उस समय विष्णु आदि देवताओं को सम्बोधित करके हंसती हुई बोलीं। उमा ने कहा-हे हरे! हे विधे! और हे देवताओं तथा मुनियों! तुम सब लोग अपने मन से व्यथा को निकाल दो और मेरी बात सुनों। सब लोग अपने-अपने स्थान को जाओ और चिरकाल तक सुखी रहो। मैं अवतार ले मैना की पुत्री होकर उन्हें सुख दूंगी और रूद्रदेव की पत्नी हो जाऊंगी। यह मेरा अत्यन्त गुप्त मत है। भगवान् शिव की लीला अद्भुद है। वह ज्ञानियों को भी मोह में डालने वाली है। देवताओं! उस यज्ञ में जाकर पिता के द्वारा अपने स्वामी का अनादर देख जबसे मैंने दक्षजनित शरीर को त्याग दिया है, तभी से मेरे स्वामी कालाग्नि रूद्रदेव तत्काल दिगम्बर हो गये। वे मेरी ही चिन्ता में डूबे रहते हैं। उनके मन में यह विचार उठा करता है कि धर्म को जानने वाली सती मेरा रोष देखकर पिता के यज्ञ में गयी और वहां मेरा अनादर देख मुझसे प्रेम होने के कारण उसने अपना शरीर त्याग दिया। यही सोचकर वे घरबार छोड़कर अलौकिक वेष धारण करके योगी हो गये। मेरी स्वरूपभूता सती के वियोग को वे महेश्वर सहन न कर सके। देवताओं! भगवान् रूद्र की भी यह अत्यन्त इच्छा है कि भूतल पर मैना और हिमाचल के घर में मेरा अवतार हो, क्योंकि वे पुनः मेरा पाणिग्रहण करने की अधिक अभिलाषा रखते हैं।                                                                         (शेष आगामी अंक में)

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