शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (468) गतांक से आगे......

मेना को प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिवा देवी का उन्हें अभीष्ट वरदान से संतष्ट करना तथा मेना से मैनाक का जन्म.......

मन में संतान की कामना ले मेना चैत्रमास के आरम्भ से लेकर सत्ताईस वर्षों तक प्रतिदिन तत्परतापूर्वक शिवा देवी की पूजा और आराधना में लगी रहीं। वे अष्टमी को उपवास करके नवमी को लड्डू, बलि-सामग्री, पीठी, खीर और गन्ध पुष्प आदि देवी को भेंट करती थीं। मेना देवी कभी निराहार रहतीं, कभी व्रत के नियमों का पालन करतीं, कभी जल पीकर रहतीं और कभी हवा पीकर ही रह जाती थीं। विशुद्ध तेज से चमकती हुई दीप्तिमती मेना ने प्रेमपूर्वक शिवा में चित्त लगाये सत्ताईस वर्ष व्यतीत कर दिये। सत्ताईस वर्ष पूरे होने पर जगन्मयी शंकरकामिनी जगदम्बा उमा अत्यन्त प्रसन्न हुई। मेना की उत्तम भक्ति से संतुष्ट हो वे परमेश्वरी देवी उन पर अनुग्रह करने के लिए उनके सामने प्रकट हुईं। तेजोमण्डल के बीच में विराजमान तथा दिव्य अवयवों से संयुक्त उमादेवी प्रत्यक्ष दर्शन दे मेना से हंसती हुई बोलीं।

देवी ने कहा-गिरिराज हिमालय की रानी महासाध्वी मेना! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम्हारे मन मंे जो अभिलाषा हो, उसे कहो। मेना! तुमने तपस्या, व्रत और समाधि के द्वारा जिस-जिस वस्तु के लिए प्रार्थना की है, वह सब मैं तुम्हें दूंगी। तब मेना ने प्रत्यक्ष हुई कालिकादेवी को देखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा। मेना बोली-देवि! इस समय मुझे आपके रूप का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है। अतः मैं आपकी स्तुति करना चाहती हूं। कालिके! इसके लिए आप प्रसन्न हों।                                                                                 (शेष आगामी अंक में)

Post a Comment

Previous Post Next Post