शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (470) गतांक से आगे......

मेना को प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिवा देवी का उन्हें अभीष्ट वरदान से संतष्ट करना तथा मेना से मैनाक का जन्म.......

 जिसके द्वारा ब्रह्म के स्वरूप को वश में किया जाता (जाना जाता) है, वह नित्या विद्या आप ही हैं। मातः! आज मुझ पर प्रसन्न होइये। आप ही अग्नि के भीतर व्याप्त उग्र दाहिका शक्ति हैं। आप ही सूर्य-किरणों में स्थित प्रकाशिका शक्ति हैं। चन्द्रमों में जो आहृादिका शक्ति है, वह भी आप ही हैं। ऐसी आप चण्डी देवी का मैं स्तवन और वंदन करती हूं। आप स्त्रियों को बहुत प्रिय हैं। ऊध्र्वरेता ब्रह्मचारियों की ध्येयभूता नित्या ब्रह्मशक्ति भी आप ही हैं। सम्पूर्ण जगत् की वाच्छा तथा श्रीहरि की माया भी आप ही हैं। जो देवी इच्छानुसार रूप धारण करके सृष्टि, पालन और संहारमयी हो, उन कार्यों का सम्पादन करती हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र शरीर की भी हेतुभूता हैं, वे आप ही हैं। देवि! आज आप मुझपर प्रसन्न हों। आपको पुनः मेरा नमस्कार है।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! मेना के इस प्रकार स्तुति करने पर दुर्गा कालिका ने पुनः उन मेना देवी से कहा-तुम अपना मनोवांछित वर मांग लो। हिमाचल प्रिये! तुम मुझे प्राणों के समान प्यारी हो। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह मांगो। उसे मैं निश्चय ही दे दूंगी। तुम्हारे लिए मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।

महेश्वरी उमा का यह अमृत समान मधुर वचन सुनकर हिमगिरिकामिनी मेना बहुत संतुष्ट हुई और इस प्रकार बोली-शिवे! आपकी जय हो, जय हो। उत्कृष्ट ज्ञान वाली महेश्वरि! जगदम्बिके! यदि मैं वर पाने योग्य हूं तो फिर आपसे श्रेष्ठ वर मांगती हूं। जगदम्बे! पहले तो मुझे सौ पुत्र हों। उन सबकी बड़ी आयु हो।    (शेष आगामी अंक में)

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