रमा ठाकुर, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
गुलाब की तरह खिला मेरा जीवन,
पर कांटों से भरी रही हर एक दास्तान।
नाज़ुक पंखुड़ियों में दर्द समेटे,
हर मुस्कान के पीछे छुपे कई अरमान।
अब इन फूलों को गुलदान में सजा रहने दो,
मुझे इत्र सा बन हवा में मिलने दो।
बंद पड़ी खिड़कियों से रोशनी बुलानी है,
सोए अरमानों को फिर से जगाना है।
तमन्नाओं का लहू बहाया है मैंने,
हर ख़्वाहिश का दम घोंटा है मैंने।
सहमी-सहमी, डरी-सी ये ज़िंदगी,
कतरा-कतरा पिघलती मेरी बंदगी।
दर्द को हँसी में छुपाने की अदा सीख ली,
हर ग़म को मुस्कान में पिरोने की कला सीख ली।
ज़ख़्मों को खुला छोड़ रखा है मैंने,
ताउम्र दर्द की तपिश सहने के लिए।
मुझे अपने अस्तित्व की तलाश है,
अपनी पहचान को पाने की आस है।
जो खो गया, उसका अब कोई ग़म नहीं,
जो पाया, वह भी किसी रहमत से कम नहीं।
क्षितिज के पार अब उड़ान भरना है,
खुशबू बन फ़िज़ाओं में घुल महकना है।
मुझे तारों-सा नहीं चमकना है,
जो आकाश के महासागर में खो जाए कहीं।
मुझे तो पूर्णिमा का चाँद बन जाना है,
जो स्याह रातों को रोशनी से नहला दे कहीं।
कृष्णा वास, लोअर चक्कर, शिमला हिमाचल प्रदेश