शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (477) गतांक से आगे......

पार्वती का नामकरण और विद्याध्ययन, नारद का हिमवान् के यहां  जाना, पार्वती का हाथ देखकर भावी फल बताना, चिन्तित हुए हिमवान् को पार्वती का विवाह शिवजी के साथ करने को कहना और उनके संदेह का निवारण करना

तदनन्तर सुन्दर मुहूर्त में मुनियों के साथ हिमवान् ने अपनी पुत्री के काली आदि सुखदायक नाम रखे। देवी शिवा गिरिराज के भवन में दिनों-दिन बढ़ने लगी- ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा के समय में गंगाजी की जलराशि और शरद ट्टतु के शुक्लपक्ष में चांदनी बढ़ती है। सुशीलता आदि गुणों से संयुक्त तथा बन्धुजनों की प्यारी उस कन्या को कुटुम्ब के लोग अपने कुल के अनुरूप पार्वती के नाम से पुकारने लगे। माता ने कालिका को उ मा (अरी! तपस्या मत कर) कहकर तप करने से रोका था। मुने! इसलिए वह सुन्दर मुखवाली गिरिराजनन्दिनी आगे चलकर लोक में उमा के नाम से विख्यात् हो गयीं। नारद! तदनन्तर जब विद्या के उपदेश का समय आया, तब शिवा देवी अपने चित्त को एकाग्र करके बड़ी प्रसन्नता के साथ श्रेष्ठ गुरू से विद्या पढ़ने लगीं। पूर्वजन्म की सारी विद्याएं उन्हें उसी तरह प्राप्त हो गयीं, जैसे शरत्काल में हंसों की पांत अपने आप  स्वर्गंगा के तट पर पहुंच जाती है और रात्रि में अपना प्रकाश स्वतः महौषधियों को प्राप्त हो जाता है। मुने! इस प्रकार मैंने शिवा की किसी एक लीला का ही वर्णन किया है। अब अन्य लीला का वर्णन करूंगा, सुनो। एक समय की बात है तुम भगवान् शिव की प्रेरणा से प्रसन्नतापूर्वक हिमाचल के घर गये। मुने! तुम शिवतत्व के ज्ञाता और उनकी लीला के जानकारों में श्रेष्ठ हो।                 (शेष आगामी अंक में)

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