मूल गढवाली भीष्म कुकरेती,
( गढ़वाली लोक-साहित्य, भाषा, कला-संस्कृति व लोक-जीवन के चलते फिरते एन्साइक्लोपीडिया, प्रखर समालोचक तथा नेट तथा सोशल मीडिया के माध्यम से गढ़वाली साहित्य-संस्कृति का राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर तक प्रचार-प्रसार करने वाले भीष्म कुकरेती ने गढ़वाली कहानी विधा में भी अपना योगदान दिया है | उनकी प्रस्तुत कहानी शरीर विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। लीक से हटकर विषय चुनकर वे साहित्य जगत के सागर में हलचल ही नहीं करते कभी कभी ज्वार-भाटा लाने की भी क्षमता रखते हैं। )
गाँव में न कभी ऐसा हुआ, न किसी ने ऐसा कुछ कभी देखा | हाँ, सच्ची बात है... गाँव भर ही नहीं पूरे इलाके में झबरी दादी सबसे वृद्ध प्राणी थी, होगी कोई पचानबे-छयानबे साल की, पर हद की बात ये थी कि झबरी दादी ने भी ऐसा अचरज नहीं देखा सुना था | वैद्यजी आ आकर थक गए | क्या-क्या नहीं किया वैद्यजी ने ?.. पर दाता की बहू गोमती पर कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था| बैद्य चिरंजीलाल अपने आप पर खीज उठा, उसे गुस्सा आ गया | उसने आव देखा न ताव और अपना वैदकी का थैला पहाड़ से नीचे फेंक दिया | अरे ! ऐसा कभी नहीं हुआ था कि मरीज की बीमारी वैद्य चिरंजीलाल के समझ में ही न आई हो | ठीक है, उपचार करते करते रोगी मरे भी होंगे, पर चिरंजी को रोग का पता तो चल ही जाता था | वैदयकी का थैला फेंकते हुए चिरंजीलाल ने धन्वन्तरि (स्वास्थ्य के देवता) और ऋषि चरक (आयुर्वेद के प्रकांड ज्ञाता) की सौगंध ली कि वह उस दिन के बाद वह किसी का उपचार नहीं करेगा | जब हाथ में कीर्ति न रही तो चिकित्सा भी क्यों करे ... कीर्ति की जहां तक बात है, चिरंजीलाल किसी मृत व्यक्ति की भी नब्ज देख लेता था तो मृतक झट से खड़ा हो जाता था | चिरंजीलाल ने दाता की बहू को न जाने कितनी दवाईयां पिला दी पर उसकी बीमारी टस से मस नहीं हुई |भूत-भविष्य बताने वाले तान्त्रिकों का हिसाब गड़बड़ा गया | किसी का गणित ठीक नहीं बैठा| वाक् देने वाले चावल-हल्दी सूंघ-सूंघ बेहोश हो गए पर क्या मजाल कि... उनके वाक् में कभी नागराजा*, कभी ग्वल* देवता, कभी दूधी–नरसिंघ* तो कभी डोंडया-नरसिंघ*( स्थानीय देवता ) कभी सैद*(मुसलमानी) तो कभी देवी प्रकट हो जाती | दाता के घर पर सुबह नागराजा, दोपहर को डौंडया-नरसिंघ (नरसिहं का बिगड़ा स्वरुप) और रात को देवी का घड्यला ( दोष-व्याधि शमन हेतु, डमरू-थाली बजाते हुए, जागर गीत गाकर देवताओं, मृआत्माओं आदि को प्रसन्न करने की विधि) का आयोजन होने लगा था | वाक् देने वालों के कथनानुसार तीन बार जाळकटै! (मृतात्माओं के दोष निवारण हेतु विशेष पूजा) भी हो गई थी | इतने दिनों से जागरी ( जागर गाने वाले) गाँव में रह रहे थे पर इतनी पूजा- आह्वान के बाद भी दाता की बहू ठीक नहीं हुई | इसी उत्सुकता में गाँव के और घरों में भी घड्यल़ा आयोजित होने लगे | अब सुना है किसी दूसरे इलाके के एक वाक् बोलने वाले ने बताया कि कई सौ साल पूर्व कोई वयोवृद्ध लड़ाई में घायल हो गया था | तलवार से घायल उस वृद्ध के शरीर को को कौए, चील, कराऊँ आदि पक्षी नोच-नोचकर खा गए थे | उस पूर्वज की अतृप्त भटकती हुई आत्मा अब दाता की बहू को चैन नहीं लेने दे रही थी | कहते हैं, मरता क्या न करता ...दाता की माँ ने महादेव चट्टी गंगा के किनारे जाकर नारायण-बलि ( अतृप्त आत्माओं की तृप्ति के लिए विशेष पूजा) भी करवाई पर दाता की नई-नवेली दुल्हन ने स्वस्थ नहीं होना था सो नहीं हुई |
दाता के बरामदे, छज्जे व आँगन में लोगों की भीड़ लगी रहती थी ..घासियारियों की बातचीत दाता की दुल्हन से शुरू होकर दाता की दुल्हन पर समाप्त होती थी ... चरवाहों की बातों में मवेशी नहीं दाता की दुल्हन ही होती थी | स्कूली बच्चे भी स्कूल जाते हुए पहले दाता के घर पर हाजिरी लगाते तब स्कूल जाते व स्कूल से लौटते समय भी पहले दाता के घर जाते फिर अपने अपने घर ... वृद्ध –सयाने, जो पहले किसी अन्य के आँगन में बैठे बतियाते थे, अब सुबह से शाम तक इधर दाता के आँगन में जमघट लगाकर बाते करते रहते हैं और साथ ही दाता की माँ को सलाह मशविरा भी देते रहते हैं | आजकल जवान, अधेड़, बूढ़े सभी के लिए दाता के घर का चबूतरा ही तम्बाकू का धुआँ उड़ाने के लिए एकमात्र जगह रह गई है|
गाँव की बात है भाई!, दुःख सुख में काम नहीं आयेंगे तो कब आयेंगे ..जो भी आता पहले दाता की माँ को धीरज बंधाता और फिर आँगन में बैठ जाता | तरह तरह के लोग और तरह तरह की सलाह .. दाता की माँ भी सभी की बात मानने को विवश थी | कोई बोलता बहू को गरम पानी पिलाओ तो बहू को गरम पानी पीने को दिया जाता, तभी कोई कहता “मेरी साली को भी यही बीमारी थी .. उसने छांछ पी तो वह ठीक हो गई|” बस उसी समय दाता की बहू को छांछ पिला दी जाती | कोई कहता बहू को कुछ ओढा दो तो उसे ओढ़ना दिया जाता... मतलब जितने मुहँ उतनी तरह के उपचार |
अब जब दाता के घर में आस पास के लोग सुबह से शाम तक जमे रहेंगे तो बात कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगी और कितने ही प्रकार की बाते होंगी | वहाँ अब एक पंथ दो काज होने लगे थे | लोग दाता की बहू की कुशल-क्षेम भी पता कर लेते साथ ही कई और काम भी निबटाते जाते | अब इतने लोग एक जगह पर होंगे तो हार-व्यवहार व्यापार की बातें भी होनी ही थी | और फिर शादी-ब्याह की बातें चलनी भी जरूरी थी | इन आठ दस दिनों में दाता के आँगन में बीस के करीब जन्म-पत्रियों की देख दिखाई हुई, चार लड़कियों की मंगनी तय हो गई, आठ जोड़ी बैल बिक गए, कई गायों ने मालिक और गोशालायें बदली, दो तीन भैंसे इधर से उधर हुई... चार तांद ( झुंड-पंक्ति) बकरियों का व्यापार भी इन्ही दिनों हुआ, दो खेतों का सौदा यहीं पर हो गया | दाता की बहू को ये अजीब सी बीमारी क्या हुई, दाता का घर तो आजकल व्यापारियों के लिए मंडी हो गया था |
दाता ! अहा दाता! ऐसा दयालु ..कहते है, सारे इलाके की मातायें प्रार्थना करती हैं, “हे भूमिदेव, हमें लड़का दोगे तो दाता जैसा देना ..” | दाता जब दो साल का था, उसके पिता का स्वर्गवास हो गया था और माँ विधवा हो गई थी | विधवा माँ ने लोगों के खेतों में काम करके, मेहनत- मजदूरी करके दाता को पढ़ाया और आज दाता लखनऊ किसी कालेज में प्रोफेसर है | शादी के मौका आया तो उसने बोल दिया “जिस माँ ने मेरी खातिर इतने कष्ट सहे, वो जहां कहेगी मैं वहीं ब्याह करूंगा .” बस, ये शादी हो गई |
पर दाता की माँ का भाग्य तो देखो ! विवाहोपरांत, पग-फेरे के तीसरे दिन ही दाताराम को वापस नौकरी पर जाना पड़ा | कहते हैं, वहां कालेज में सत्र परीक्षाएं चल रही हैं, तो इतने ही दिन का अवकाश मिल पाया था उसे ..| उधर दाता कोटद्वार तक पहुंचा होगा, इधर उसकी बहू का शरीर अकड़ गया.. पूरी तरह ऐंठकर सख्त हो गया .. मानो बहू को कोई असाध्य रोग हो गया हो | भूत, पिशाच, सैय्यद, डायन आदि से ग्रसित बीमार तो देखे थे पर इस तरह का अनभिज्ञ रोग किसी ने नहीं देखा था | एक दो दिन में सब तरफ ढिंढोरा पिट गया कि दाता की बहू मायके से ही बीमार थी |
ग्वर्र्मिलाक का समय था | लोग दाता के आँगन में जमे हुए थे| ऊपर बरामदे में घडल्या में दाता की बहू रोज की तरह कभी दान्त किटकिटा रही थी, कभी खाफ़ खाफ़ मुहं खोल रही थी ..कभी इस करवट लेटती तो कभी दूसरी करवट बदलती, तो कभी आँखे फाड़कर टकटकी लगा ऊपर ढापुर (अटारी) की कड़ियाँ, तख्त, बल्लियाँ देखती रहती | कभी वह पसीने से नहा रही होती तो कभी उसे सर्दी लगती | फिलहाल, गोमती नंगे फर्श में पड़ी हुई मुट्ठियाँ भींचती कराहती जा रही थी |
कुछ लोग बैठे हुए थे, औरतें खुसुर-फुसुर कर रही थी कि तभी रणथ गाँव का परमानाथ तांत्रिक-गुरु इकतारा बजाते बजाते आँगन में पहुंच गया | परमानाथ गाँव का तांत्रिक-गुरु था | इकतारा बजाते हुए वह सुन्दर आवाज में गा रहा था ......
“माता रोये जनम जनम को, बहन रोये छ: मासा
तिरया रोये डेढ़ घड़ी को, आन करे घर बासा ...”
सब लोग चौकन्ने हो गए कि देखें परमा तांत्रिक जाने कहाँ कहाँ की खबरें लेकर आया होगा और क्या क्या तीर मारेगा ..! परमानाथ ने इकतारा दीवार के सहारे खड़ा किया, चिलम भरी और लम्बे लम्बे कश लेकर धुआँ छोड़ने लगा | कश लगाकर परमानाथ को कुछ शान्ति मिली तो वह सीधे सीढियां चढ़कर झबरी दादी की नीचे वाली सीढ़ी में जाकर बैठ गया | उसने झबरी दादी से सारा वृत्तांत सुना और फिर जोर से चिलम के कश पर कश खींचने लगा | पूरा वातावरण धुआँ धुआँ हो गया |
अब उसने भीतर की और मुहं करके दाता की बहू की और देखा, झबरी दादी से सारा वृत्तांत भी सुना | परमानाथ ने दाता की माँ को आवाज दी, “ ओ भाभी ! बहू को ज़रा बाहर छज्जे पर लाना तो ..” परमानाथ गाँव का तंन्त्र-मन्त्र विशेषज्ञ था इसलिए उसकी बात को कोई अनसुनी नहीं करता था |
औरतें दाता की बहू को छज्जे में लेकर आ गयी | परमा तांत्रिक ने दाता की बहू को भली प्रकार से देखा.. एक बार नहीं कई बार देखा | फिर परमा आँगन में आ गया | आँगन से ही उसने झबरी दादी को आवाज दी “हे झबरी दादी ! मैं तो कहता हूँ तुमको ज़िंदा ही चिता में जला देते तो ठीक रहता ..”
झबरी दादी के तन बदन में मानो आग लग गई | उसने भी फटाक से उत्तर दिया “तू अपनी माँ को गाढ दे ज़िंदा ...” | साथ ही झबरी दादी यह भी समझ रही थी की परमानाथ को कुछ अक्ल की बात सूझ गई थी | वह धीरे धीरे सीढियां उतरने लगी |
फिर परमानाथ चिरंजीलाल को सुनाते हुए बोला “वैद जी आप तो दवाइयों के गुलाम हो .. मन नाम की भी कोई चीज है कि नहीं?” चिरंजीलाल वैसे ही दुखी था, कुछ नहीं बोला |
परमानाथ ने झबरी दादी को जोर देकर पूछा “ तुम्हारे कितने नाती-पोते पोतियाँ हैं?”
“ अरे अभागे गुरु, नजर मत लगा देना ! परपोते, पोतियाँ, नाती नातिनें, सब मिलाकर तीन बीसी (साठ) में ग्यारह कम ( उणनचास) तो होंगे ,” झबरी दादी ने उत्तर दिया |
“और, अब भी नहीं समझ आया तुमको कि दाता की ब्वारी क्यों बीमार है ?”
झबरी दादी ने कहा “तुम अपने को विधाता समझते हो न ! तुम ही बता दो ..”
परमानाथ ने पूछा “दाता शादी के बाद कितने दिन घर पर रहा ?”
झबरी ने जबाब दिया कि दो दिन ..
परमानाथ ने पूछा “दाता की बहू की उम्र कितनी होगी ?”
झबरी दादी ने उत्तर दिया “होगी कोई बीस इक्कीस ..”
परमानाथ ने प्रत्युतर दिया “हे खड्योणा (जमीन में दबाने लायक) दादी ! जवान बहू, दूल्हा शादी के दो दिन उपरांत ही परदेश चला गया तो बहू बीमार तो होगी ही न ..”
झबरी दादी जोर से माथे पर हाथ मारते हुए बोली “हे मेरी माँ ! हाँ, ऐसे में बहू बीमार होगी नहीं क्या? ... जवान बहू और दूल्हा सिर्फ दो दिन घर पर ... अच्छा तभी बहू दांत भींच रही है, दांत किटकिटा रही है, तभी तो पसीना ... हे मेरी माँ, मेरी खोपड़ी में ये बात क्यों नहीं आई|” परमानाथ ने कहा , “ अब आ गई तेरी समझ में बात ?
झबरी दादी ने आवाज देकर कहा “हे दाता की माँ, कल ही कैरा के संग बहू को लखनऊ दाता के पास भेज दे ..मैं नाती-नातिनों की कसम खाकर बोल रही हूँ, दाता को देखते ही वह अपने आप स्वस्थ हो जायेगी |”
चिरंजीलाल भागकर परमानाथ के पास गया और धीमी आवाज में खुसर-पुसर करते हुए बोला “तो इसका अर्थ ये हुआ कि दाता की बहू देह-सुख की कामना से बीमार है ?”
परमानाथ ने कहा “क्यों ? उसके आँख, कान और सांस लेने की प्रक्रिया से पता नहीं चल रहा है कि वह देह-सुख की कामना से ही अस्वस्थ है..”
चिरंजीलाल का जबाब था “मैंने इस दृष्टि से निरीक्षण किया ही नहीं.. हाँ देह-सुख की कामना ..”
वृद्ध-सयाने सब समझ गए कि दरअसल बीमारी है क्या ! इधर कैरा दाता की बहू को लखनऊ पहुंचाने की तैयारी कर रहा था तो उधर परमानाथ अपने इकतारे को बजाता हुआ गा रहा था ...
“सुन रे बेटा गोपीचंद जी, बात सुनी चित लाई
कंचन काया, कनक, कामिनी, मति कैसी भरमाई ..”
पांच सात दिन बाद कैरा जब लखनऊ से घर वापस आया तो उसने बताया कि दाता की बहू लखनऊ पहुँचने के दूसरे दिन ही बिलकुल स्वस्थ हो गई थी |
कुछ लोग बैठे हुए थे, औरतें खुसुर-फुसुर कर रही थी कि तभी रणथ गाँव का परमानाथ तांत्रिक-गुरु इकतारा बजाते बजाते आँगन में पहुंच गया | परमानाथ गाँव का तांत्रिक-गुरु था | इकतारा बजाते हुए वह सुन्दर आवाज में गा रहा था ......
“माता रोये जनम जनम को, बहन रोये छ: मासा
तिरया रोये डेढ़ घड़ी को, आन करे घर बासा ...”
सब लोग चौकन्ने हो गए कि देखें परमा तांत्रिक जाने कहाँ कहाँ की खबरें लेकर आया होगा और क्या क्या तीर मारेगा ..! परमानाथ ने इकतारा दीवार के सहारे खड़ा किया, चिलम भरी और लम्बे लम्बे कश लेकर धुआँ छोड़ने लगा | कश लगाकर परमानाथ को कुछ शान्ति मिली तो वह सीधे सीढियां चढ़कर झबरी दादी की नीचे वाली सीढ़ी में जाकर बैठ गया | उसने झबरी दादी से सारा वृत्तांत सुना और फिर जोर से चिलम के कश पर कश खींचने लगा | पूरा वातावरण धुआँ धुआँ हो गया |
अब उसने भीतर की और मुहं करके दाता की बहू की और देखा, झबरी दादी से सारा वृत्तांत भी सुना | परमानाथ ने दाता की माँ को आवाज दी, “ ओ भाभी ! बहू को ज़रा बाहर छज्जे पर लाना तो ..” परमानाथ गाँव का तंन्त्र-मन्त्र विशेषज्ञ था इसलिए उसकी बात को कोई अनसुनी नहीं करता था |
औरतें दाता की बहू को छज्जे में लेकर आ गयी | परमा तांत्रिक ने दाता की बहू को भली प्रकार से देखा.. एक बार नहीं कई बार देखा | फिर परमा आँगन में आ गया | आँगन से ही उसने झबरी दादी को आवाज दी “हे झबरी दादी ! मैं तो कहता हूँ तुमको ज़िंदा ही चिता में जला देते तो ठीक रहता ..”
झबरी दादी के तन बदन में मानो आग लग गई | उसने भी फटाक से उत्तर दिया “तू अपनी माँ को गाढ दे ज़िंदा ...” | साथ ही झबरी दादी यह भी समझ रही थी की परमानाथ को कुछ अक्ल की बात सूझ गई थी | वह धीरे धीरे सीढियां उतरने लगी |
फिर परमानाथ चिरंजीलाल को सुनाते हुए बोला “वैद जी आप तो दवाइयों के गुलाम हो .. मन नाम की भी कोई चीज है कि नहीं?” चिरंजीलाल वैसे ही दुखी था, कुछ नहीं बोला |
परमानाथ ने झबरी दादी को जोर देकर पूछा “ तुम्हारे कितने नाती-पोते पोतियाँ हैं?”
“ अरे अभागे गुरु, नजर मत लगा देना ! परपोते, पोतियाँ, नाती नातिनें, सब मिलाकर तीन बीसी (साठ) में ग्यारह कम ( उणनचास) तो होंगे ,” झबरी दादी ने उत्तर दिया |
“और, अब भी नहीं समझ आया तुमको कि दाता की ब्वारी क्यों बीमार है ?”
झबरी दादी ने कहा “तुम अपने को विधाता समझते हो न ! तुम ही बता दो ..”
परमानाथ ने पूछा “दाता शादी के बाद कितने दिन घर पर रहा ?”
झबरी ने जबाब दिया कि दो दिन ..
परमानाथ ने पूछा “दाता की बहू की उम्र कितनी होगी ?”
झबरी दादी ने उत्तर दिया “होगी कोई बीस इक्कीस ..”
परमानाथ ने प्रत्युतर दिया “हे खड्योणा (जमीन में दबाने लायक) दादी ! जवान बहू, दूल्हा शादी के दो दिन उपरांत ही परदेश चला गया तो बहू बीमार तो होगी ही न ..”
झबरी दादी जोर से माथे पर हाथ मारते हुए बोली “हे मेरी माँ ! हाँ, ऐसे में बहू बीमार होगी नहीं क्या? ... जवान बहू और दूल्हा सिर्फ दो दिन घर पर ... अच्छा तभी बहू दांत भींच रही है, दांत किटकिटा रही है, तभी तो पसीना ... हे मेरी माँ, मेरी खोपड़ी में ये बात क्यों नहीं आई|” परमानाथ ने कहा , “ अब आ गई तेरी समझ में बात ?
झबरी दादी ने आवाज देकर कहा “हे दाता की माँ, कल ही कैरा के संग बहू को लखनऊ दाता के पास भेज दे ..मैं नाती-नातिनों की कसम खाकर बोल रही हूँ, दाता को देखते ही वह अपने आप स्वस्थ हो जायेगी |”
चिरंजीलाल भागकर परमानाथ के पास गया और धीमी आवाज में खुसर-पुसर करते हुए बोला “तो इसका अर्थ ये हुआ कि दाता की बहू देह-सुख की कामना से बीमार है ?”
परमानाथ ने कहा “क्यों ? उसके आँख, कान और सांस लेने की प्रक्रिया से पता नहीं चल रहा है कि वह देह-सुख की कामना से ही अस्वस्थ है..”
चिरंजीलाल का जबाब था “मैंने इस दृष्टि से निरीक्षण किया ही नहीं.. हाँ देह-सुख की कामना ..”
वृद्ध-सयाने सब समझ गए कि दरअसल बीमारी है क्या ! इधर कैरा दाता की बहू को लखनऊ पहुंचाने की तैयारी कर रहा था तो उधर परमानाथ अपने इकतारे को बजाता हुआ गा रहा था ...
“सुन रे बेटा गोपीचंद जी, बात सुनी चित लाई
कंचन काया, कनक, कामिनी, मति कैसी भरमाई ..”
पांच सात दिन बाद कैरा जब लखनऊ से घर वापस आया तो उसने बताया कि दाता की बहू लखनऊ पहुँचने के दूसरे दिन ही बिलकुल स्वस्थ हो गई थी |
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